अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 34/ मन्त्र 10
यः शश्व॑तो॒ मह्ये॑नो॒ दधा॑ना॒नम॑न्यमाना॒ञ्छर्वा॑ ज॒घान॑। यः शर्ध॑ते॒ नानु॒ददा॑ति शृ॒ध्यां यो दस्यो॑र्ह॒न्ता स ज॑नास॒ इन्द्रः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । शश्व॑त: । महि॑ । एन॑: । दधा॑नात् । अम॑न्यमानान् । शुर्वा॑ । ज॒घान॑ ॥ य: । शर्ध॑ते । न । अ॒नु॒ऽददा॑ति । शृ॒ध्याम् । य: । दस्यो॑: । ह॒न्ता । स: । ज॒ना॒स॒: । इन्द्र॑: ॥३४.१०॥
स्वर रहित मन्त्र
यः शश्वतो मह्येनो दधानानमन्यमानाञ्छर्वा जघान। यः शर्धते नानुददाति शृध्यां यो दस्योर्हन्ता स जनास इन्द्रः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । शश्वत: । महि । एन: । दधानात् । अमन्यमानान् । शुर्वा । जघान ॥ य: । शर्धते । न । अनुऽददाति । शृध्याम् । य: । दस्यो: । हन्ता । स: । जनास: । इन्द्र: ॥३४.१०॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 34; मन्त्र » 10
विषय - 'दस्यु-हन्ता' प्रभु
पदार्थ -
१. (य:) = जो (शश्वत:) = बहुत ही (महि एनः दधानान्) = महान् पापों को धारण करनेवाले, (अमन्यमानान्) = प्रभु में आस्था न रखनेवाले पापियों को (शर्वा) = हनन-साधन वन आदि से जधान नष्ट कर डालते हैं। हे (जनासः) = लोगो! (सः इन्द्रः) = वे ही परमैश्वर्यशाली प्रभु हैं। २. प्रभु वे हैं, (य:) = जो (शर्धते) = बल के अभिमान में निर्बलों का हिंसन करनेवाले के लिए (शुभ्याम्) = शत्रु प्रसहनशक्ति को न अनुददाति नहीं देते हैं और (य:) = जो (दस्योः हन्ता) = औरों का उपक्षय करनेवाले दस्युओं के हन्ता हैं।
भावार्थ - प्रभु ही पापियों का विनाश करते हैं। अत्याचारियों की शक्तियों को छीन लेते हैं तथा दस्युओं के विनाशक हैं।
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