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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 34

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 34/ मन्त्र 15
    सूक्त - गृत्समदः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३४

    यः सु॒न्वन्त॒मव॑ति॒ यः पच॑न्तं॒ यः शंस॑न्तं॒ यः श॑शमा॒नमू॒ती। यस्य॒ ब्रह्म॒ वर्ध॑नं॒ यस्य॒ सोमो॒ यस्ये॒दं राधः॒ स ज॑नास॒ इन्द्रः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । सु॒न्वन्त॑म् । अव॑ति । य: । पच॑न्तम् । य: । शंस॑न्तम् । य: । श॒श॒मा॒नम् । ऊ॒ती ॥ यस्य॑ । ब्रह्म॑ । वर्ध॑नम् । यस्य॑ । सोम॑: । यस्य॑ । इ॒दम् । राध॑: । स: । ज॒ना॒स॒: । इन्द्र॑:॥३४.१५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यः सुन्वन्तमवति यः पचन्तं यः शंसन्तं यः शशमानमूती। यस्य ब्रह्म वर्धनं यस्य सोमो यस्येदं राधः स जनास इन्द्रः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । सुन्वन्तम् । अवति । य: । पचन्तम् । य: । शंसन्तम् । य: । शशमानम् । ऊती ॥ यस्य । ब्रह्म । वर्धनम् । यस्य । सोम: । यस्य । इदम् । राध: । स: । जनास: । इन्द्र:॥३४.१५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 34; मन्त्र » 15

    पदार्थ -
    १. (यः) = जो (सुन्वन्तम्) = सोम का अभिषव करनेवाले का-शरीर में सोम का रक्षण करनेवाले का (अवति) = रक्षण करता है, (यः) = जो (पचन्तम्) = ज्ञानाग्नि में अपने को परिपक्व करनेवाले को रक्षित करता है, (यः) = जो (शंसन्तम्) = प्रभु का शंसन करनेवाले का रक्षण करता है और (शशमानम्) = प्लुत गति से अपने कर्तव्य-कर्मों को करनेवालों को (ऊती) = रक्षण के द्वारा प्राप्त होता है। २. (यस्य) = जिसका-जिससे दिया हुआ, (ब्राह्म) = ज्ञान (वर्धनम्) = हमारी वृद्धि का कारण होता है। (यस्य) = जिसका-जिससे उत्पन्न किया गया सोमः सोम हमारी वृद्धि का साधक होता है और (यस्य) = जिसका (इदं राध:) = यह ऐश्वर्य है, हे (जनास:) = लोगो! (सः इन्द्रः) = बही परमैश्वर्यशाली प्रभु 'इन्द्र' है |

    भावार्थ - प्रभु 'सोमरक्षक, ज्ञानाग्नि में अपने को परिपक्व करनेवाले, स्तोता, क्रियाशील' व्यक्ति को प्राप्त होते हैं। प्रभु से दिया गया ज्ञान, प्रभु से उत्पन्न किया गया सोम तथा प्रभु प्रदत्त ऐश्वर्य हमारा वर्धक होता है।

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