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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 34

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 34/ मन्त्र 3
    सूक्त - गृत्समदः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३४

    यो ह॒त्वाहि॒मरि॑णात्स॒प्त सिन्धू॒न्यो गा उ॒दाज॑दप॒धा व॒लस्य॑। यो अश्म॑नोर॒न्तर॒ग्निं ज॑जान सं॒वृक्स॒मत्सु॒ स ज॑नास॒ इन्द्रः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    य: । ह॒त्वा । अहि॑म् । अरि॑णात् । स॒प्त । सिन्धू॑न् । य: । गा: । उ॒त्ऽआज॑त् । अ॒प॒ऽधा । व॒लस्य॑ ॥ य: । अश्म॑नो: । अ॒न्त: । अ॒ग्निम् । ज॒जान॑ । स॒म्ऽवृक् । स॒मत्ऽसु॑ । स: । ज॒ना॒स॒: । इन्द्र॑: ॥३३.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यो हत्वाहिमरिणात्सप्त सिन्धून्यो गा उदाजदपधा वलस्य। यो अश्मनोरन्तरग्निं जजान संवृक्समत्सु स जनास इन्द्रः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    य: । हत्वा । अहिम् । अरिणात् । सप्त । सिन्धून् । य: । गा: । उत्ऽआजत् । अपऽधा । वलस्य ॥ य: । अश्मनो: । अन्त: । अग्निम् । जजान । सम्ऽवृक् । समत्ऽसु । स: । जनास: । इन्द्र: ॥३३.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 34; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    १. हे (जनासः) = लोगो! (इन्द्रः सः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु वे हैं (यः) = जो (अहिम्) = हमारा विनाश करनेवाली वासना का [आहन्ति] (हत्वा) = विनाश करके (समसिन्धून्) = दो कान, दो नासिका-छिद्र, दो आँखें व मुखरूप सप्त ऋषियों से प्रवाहित किये जानेवाले सात [सर्पणशील] ज्ञान-प्रवाहों को (अरिणात्) = गतिमय करते हैं, और जो (वलस्य) = ज्ञान पर पर्दे के रूप में आ जानेवाली वासना के (अपधा) = [अप-धा] दूर स्थापन के द्वारा (गा:) = ज्ञान की वाणियों को (उद् आजत्) = उत्कर्षेण प्रेरित करते हैं। २. प्रभु वे हैं (य:) = जो (अश्मनोः अन्त:) = दो मेघों के अन्दर (अग्निम्) = विद्युत् रूप अग्नि को (जजान) = प्रादुर्भूत करते हैं। इसी प्रकार हमारे जीवनों में ज्ञान व श्रद्धारूप अश्माओं के बीच में कर्मरूप अग्नि को उत्पन्न करते हैं और (समत्सु) = वासना-संग्रामों में (संवृक्) = काम-क्रोध' आदि शत्रुओं का वर्जन करनेवाले हैं। इन प्रभु का ही स्मरण करें।

    भावार्थ - प्रभु वासना-विनाश के द्वारा हमारे जीवनों में ज्ञानप्रवाहों को चलाते हैं। ज्ञान और श्रद्धा को उत्पन्न करके हमें कर्मशील बनाते हैं। काम-क्रोध आदि का विनाश करते हैं।

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