Loading...
अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 34

काण्ड के आधार पर मन्त्र चुनें

  • अथर्ववेद का मुख्य पृष्ठ
  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 34/ मन्त्र 4
    सूक्त - गृत्समदः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३४

    येने॒मा विश्वा॒ च्यव॑ना कृ॒तानि॒ यो दासं॒ वर्ण॒मध॑रं॒ गुहाकः॑। श्व॒घ्नीव॒ यो जि॑गी॒वां ल॒क्षमाद॑द॒र्यः पु॒ष्टानि॒ स ज॑नास॒ इन्द्रः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    येन॑ । इ॒मा । विश्वा॑ । च्यव॑ना । कृ॒तानि॑ । य: । दास॑म् । वर्ण॑म् । अध॑रम् । गुहा॑ । अक॒रित्यक॑: ॥ श्व॒घ्नीऽइ॑व । य: । जि॒गी॒वान् । ल॒क्षम् । आद॑त् । अ॒र्य: । पु॒ष्टानि॑ । स: । ज॒ना॒स॒: । इन्द्र॑: ॥३३.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    येनेमा विश्वा च्यवना कृतानि यो दासं वर्णमधरं गुहाकः। श्वघ्नीव यो जिगीवां लक्षमाददर्यः पुष्टानि स जनास इन्द्रः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    येन । इमा । विश्वा । च्यवना । कृतानि । य: । दासम् । वर्णम् । अधरम् । गुहा । अकरित्यक: ॥ श्वघ्नीऽइव । य: । जिगीवान् । लक्षम् । आदत् । अर्य: । पुष्टानि । स: । जनास: । इन्द्र: ॥३३.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 34; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    १. (येन) = जिन्होंने (इमा विश्वा) = इन सब लोकों को (च्यवना) = अस्थिर-नश्वर (कृतानि) = बनाया है। दृढ़-से-दृढ़ भी लोक को प्रभु प्रलय के समय विदीर्ण कर देते हैं। (यः) = जो (दासं वर्णम्) = औरों का उपक्षय करनेवाले मानवसमूह को (अधरम्) = निचली योनियों में (गुहाक:) = संवृत ज्ञान की [गुह संवरणे] स्थिति में करते हैं, अर्थात् इन्हें पशु-पक्षियों व वृक्षादि स्थावर योनियों में जन्म देते हैं। यहाँ इनकी बुद्धि सुप्त-सी रहती है। ३. (य:) = जो (जिगीवान) = सदा विजयी प्रभु (अर्य:) = वैश्यवृत्तिवाले कृपण व्यक्ति की (पुष्टानि) = सम्पत्तियों को इसप्रकार (आदत्) = छीन लेते हैं, (इव) = जैसेकि (श्वघ्नी) = व्याध (लक्षम्) = अपने लक्ष्यभूत मृग आदि को ले-लेता है। हे (जनासः) = लोगो! (स:) = वे (कृपण) = धनहर्ता प्रभु ही (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली हैं।

    भावार्थ - प्रभु वे हैं जो [क] इन दृढ़-से-दृढ़ लोकों का भी विदारण करनेवाले हैं [ख] औरों का उपक्षय करनेवालों को निचली योनियों में जन्म देते हैं। [ग] कृपणों के धनों का अपहरण कर लेते हैं।

    इस भाष्य को एडिट करें
    Top