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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 34

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 34/ मन्त्र 7
    सूक्त - गृत्समदः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-३४

    यस्याश्वा॑सः प्र॒दिशि॒ यस्य॒ गावो॒ यस्य॒ ग्रामा॒ यस्य॒ विश्वे॒ रथा॑सः। यः सूर्यं॒ य उ॒षसं॑ ज॒जान॒ यो अ॒पां ने॒ता स ज॑नास॒ इन्द्रः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यस्य॑ । अश्वा॑स: । प्र॒ऽदिशि॑ । यस्य॑ । गाव॑: । यस्य॑ । ग्रामा॑: । यस्य॑ । विश्वे॑ । रथा॑स: ॥ य: । सूर्य॑म् । य: । उ॒षस॑म् । ज॒जान॑ । य:। अ॒पाम् । ने॒ता । स: । ज॒ना॒स॒: । इन्द्र॑: ॥३३.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यस्याश्वासः प्रदिशि यस्य गावो यस्य ग्रामा यस्य विश्वे रथासः। यः सूर्यं य उषसं जजान यो अपां नेता स जनास इन्द्रः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यस्य । अश्वास: । प्रऽदिशि । यस्य । गाव: । यस्य । ग्रामा: । यस्य । विश्वे । रथास: ॥ य: । सूर्यम् । य: । उषसम् । जजान । य:। अपाम् । नेता । स: । जनास: । इन्द्र: ॥३३.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 34; मन्त्र » 7

    पदार्थ -
    १. हे (जनास:) = लोगो! (इन्द्रः स:) = परमैश्वर्यशाली प्रभु वे हैं, (यस्य) = जिनके (प्रदिशि) = प्रशासन में (अश्वास:) = हमारी कर्मेन्द्रियों कर्मों में व्याप्त होती हैं और (यस्य) = जिसके प्रशासन में ही गाव:-अर्थों की गमक ज्ञानेन्द्रियाँ ज्ञान-प्राप्ति का कार्य करती हैं। (यस्य) = जिसके प्रशासन में ये (ग्रामा:) = प्राणसमूह अपना-अपना कार्य करते हैं और (यस्य) = जिसके प्रशासन में ही विश्वे सब (रथासः) = शरीर-रथ गति कर रहे हैं। 'भ्रामयन् सर्वभूतानि यन्त्रारूढानि मायया'। २, आधिदैविक जगत् में भी (यः) = जो (सूर्यम्) = सूर्य को (जजान) = प्रादुर्भूत करते है और (य:) = जो (उषसम्) = उषा को प्रकट करते हैं। सूर्यकिरणों द्वारा जलों का वाष्पीभवन करके, मेघनिर्माण द्वारा यः जो अपाम्-जलों के नेता प्राप्त करानेवाले हैं, वे प्रभु ही 'इन्द्र' है।

    भावार्थ - प्रभु के प्रशासन में ही हमारी 'कर्मेन्द्रियाँ, ज्ञानेन्द्रियाँ, प्राणसमूह व शरीर-रथ' गति कर रहे हैं। आधिदैविक जगत् में भी प्रभु के प्रशासन में ही 'सूर्य, उषा व मेघ' आदि देव अपना-अपना कार्य करते हैं।

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