अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 34/ मन्त्र 14
द्यावा॑ चिदस्मै पृथि॒वी न॑मेते॒ शुष्मा॑च्चिदस्य॒ पर्व॑ता भयन्ते। यः सो॑म॒पा नि॑चि॒तो वज्र॑बाहु॒र्यो वज्र॑हस्तः॒ स ज॑नास॒ इन्द्रः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठद्यावा॑ । चि॒त् । अ॒स्मै॒ । पृ॒थि॒वी इति॑ । न॒मे॒ते॒ इति॑ । शुष्मा॑त् । चि॒त् । अ॒स्य॒ । पर्व॑ता: । भ॒य॒न्ते॒ । य: । सो॒म॒ऽपा: । नि॒ऽचि॒त: । वज्र॑बाहु: । य: । वज्र॑ऽहस्त: । स: । ज॒ना॒स॒: । इन्द्र॑: ॥३४.१४॥
स्वर रहित मन्त्र
द्यावा चिदस्मै पृथिवी नमेते शुष्माच्चिदस्य पर्वता भयन्ते। यः सोमपा निचितो वज्रबाहुर्यो वज्रहस्तः स जनास इन्द्रः ॥
स्वर रहित पद पाठद्यावा । चित् । अस्मै । पृथिवी इति । नमेते इति । शुष्मात् । चित् । अस्य । पर्वता: । भयन्ते । य: । सोमऽपा: । निऽचित: । वज्रबाहु: । य: । वज्रऽहस्त: । स: । जनास: । इन्द्र: ॥३४.१४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 34; मन्त्र » 14
विषय - 'ब्रह्माण्ड के शासक' प्रभु
पदार्थ -
१. (अस्मै) = इस प्रभु के लिए (द्यावापृथिवी चित्) = धद्युलोक व पृथिवीलोक भी नमते नमन करते हैं, अर्थात् ये सब इस प्रभु के शासन में चलते हैं। (अस्य) = इसके (शुष्मात्) = शत्रु-शोषक बल से (पर्वता:) = पर्वत भी भयन्ते भयभीत होते हैं, अर्थात् दृढ़-से-दृढ़ पर्वत को भी प्रभु विदीर्ण कर डालते हैं। २. (यः) = जो प्रभु (सोमपा:) = [सोम-उत्पन्न जगत्] उत्पन्न जगत् के रक्षक हैं। (निचित:) = [निकेति-to observe] सर्वद्रष्टा हैं। (वज्रबाहु:) = वनसदृश बाहुवाले हैं। कभी न थकनेवाली भुजाओंवाले, अर्थात् अत्यन्त शक्तिसम्पन्न हैं। यः जो वनहस्तः दुष्टों को दण्डित करने के लिए हाथ में वन लिये हुए हैं, हे (जनास:) = लोगो! (सः इन्द्रः) = सब शत्रुओं के विद्रावक वे प्रभु ही 'इन्द्र' है |
भावार्थ - सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड प्रभु के शासन में है। वे प्रभु अनन्तशक्तिवाले व सर्वद्रष्टा हैं। दुष्टों को दण्डित करके ठीक मार्ग पर लानेवाले हैं।
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