अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 34/ मन्त्र 6
यो र॒ध्रस्य॑ चोदि॒ता यः कृ॒शस्य॒ यो ब्र॒ह्मणो॒ नाध॑मानस्य की॒रेः। यु॒क्तग्रा॑व्णो॒ योऽवि॒ता सु॑शि॒प्रः सु॒तसो॑मस्य॒ स ज॑नास॒ इन्द्रः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठय: । र॒ध्रस्य॑ । चो॒दि॒ता: । य: । कृ॒शस्य॑ । य: । ब्र॒ह्मण॑: । नाध॑मानस्य । की॒रे: ॥ यु॒क्तऽग्रा॑व्ण: । य: । अ॒वि॒ता । सु॒शि॒प्र: । सु॒तऽसो॑मस्य । स: । ज॒ना॒स॒: । इन्द्र॑: ॥३३.६॥
स्वर रहित मन्त्र
यो रध्रस्य चोदिता यः कृशस्य यो ब्रह्मणो नाधमानस्य कीरेः। युक्तग्राव्णो योऽविता सुशिप्रः सुतसोमस्य स जनास इन्द्रः ॥
स्वर रहित पद पाठय: । रध्रस्य । चोदिता: । य: । कृशस्य । य: । ब्रह्मण: । नाधमानस्य । कीरे: ॥ युक्तऽग्राव्ण: । य: । अविता । सुशिप्र: । सुतऽसोमस्य । स: । जनास: । इन्द्र: ॥३३.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 34; मन्त्र » 6
विषय - 'युक्तग्राव्ण-सुतसोम'
पदार्थ -
१. हे (जनास:) = लोगो! (इन्द्रः सः) = परमैश्वर्यशाली प्रभु वे हैं, (य:) = जो (रधस्य) = समृद्ध पुरुषों के (चोदिता) = प्रेरक हैं। उन्हें यज्ञादि कर्मों में धन के उपयोग की प्रेरणा देनेवाले ये प्रभु ही हैं। प्रभु वे है, (यः) = जो कशस्यदुर्बल के भी प्रेरक हैं। इसे उत्साहित करते हुए आगे बढ़ने के योग्य बनाते हैं। प्रभु वे हैं (य:) = जो (नाधमानस्य) = याचना करते हुए (कीरेः) = स्तोता के लिए धनों को प्रेरित करते हैं तथा (ब्रह्मण:) = ज्ञानी के प्रेरक हैं-ज्ञानी के लिए ज्ञान देनेवाले प्रभु ही हैं। २. प्रभु वे हैं (यः) = जो (युक्तग्नाव्यः) = [ग्रावा-प्राण]-प्राणायाम द्वारा चित्तवृत्ति को प्रभु में लगानेवाले के (अविता) = रक्षक हैं तथा (सुतसोमस्य) = अपने अन्दर सोम का सम्पादन करनेवाले पुरुष को (सुशिप्र:) = उत्तम जबड़ों व नासिका-छिद्रों को प्राप्त करानेवाले है। वस्तुत: जबड़ों से भोजन को ठीक चबाता हुआ तथा नासिका-छिद्रों से प्राणायाम करता हुआ ही यह सुतसोम बन पाता है।
भावार्थ - प्रभु 'धनी, निर्धन, ज्ञानी व स्तोता' सभी को समचित प्रेरणा देनेवाले हैं। प्राणसाधना करनेवाले व सोम का सम्पादन करनेवाले पुरुष को उत्तम जबड़ों व नासिका को प्राप्त कराते हैं।
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