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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 41/ मन्त्र 2
इ॒च्छनश्व॑स्य॒ यच्छिरः॒ पर्व॑ते॒ष्वप॑श्रितम्। तद्वि॑दच्छर्य॒णाव॑ति ॥
स्वर सहित पद पाठइ॒च्छन् । अश्व॑स्य । यत् । शिर॑: । पर्व॑तेषु । अप॑ऽश्रितम् ॥ तत् । वि॒द॒त् । श॒र्य॒णाऽव॑ति ॥४१.२॥
स्वर रहित मन्त्र
इच्छनश्वस्य यच्छिरः पर्वतेष्वपश्रितम्। तद्विदच्छर्यणावति ॥
स्वर रहित पद पाठइच्छन् । अश्वस्य । यत् । शिर: । पर्वतेषु । अपऽश्रितम् ॥ तत् । विदत् । शर्यणाऽवति ॥४१.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 41; मन्त्र » 2
विषय - शर्यणावान् में अश्व के शिर की प्राप्ति
पदार्थ -
१. (पर्वतेषु) = शरीर में मेरुदण्डरूप मेरुपर्वतों पर (अपश्रितम्) = उल्टा करके रखा हुआ [अर्वाग् बिलश्चमस ऊर्ध्वबुनः] (अश्वस्य यत् शिर:) = [अश्नुते] सब विषयों का व्यापन करनेवाला जो सिर है। (तत्) = उसको (इच्छन्) = चाहता हुआ साधक (शर्यणावति विदत्) = वासनाओं का हिंसन करनेवाले व्यक्ति में (विदत्) = प्राप्त करता है। २. यहाँ 'पर्वत' मेरुदण्ड ही है। वासना-विनाश के द्वारा सब विषयों का ज्ञान करनेवाला मस्तिष्क ही 'अश्व' का मस्तिष्क है। वासनाओं का हिंसन करनेवाला व्यक्ति 'शर्यणावान्' है।
भावार्थ - यदि हम चाहते हैं कि शरीर में मेरुदण्ड पर उलटा-सा पड़ा हुआ यह हमारा सिर सब विषयों के ज्ञान का व्यापन करनेवाला बने तो हमें चाहिए कि हम वासनाओं का हिंसन करनेवाले बनें।
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