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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 41

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 41/ मन्त्र 3
    सूक्त - गोतमः देवता - इन्द्रः छन्दः - गायत्री सूक्तम् - सूक्त-४१

    अत्राह॒ गोर॑मन्वत॒ नाम॒ त्वष्टु॑रपी॒च्यम्। इ॒त्था च॒न्द्रम॑सो गृ॒हे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अत्र॑ । अह॑ । गो: । अ॒म॒न्व॒त॒ । नाम॑ । त्वष्टु॑: । अ॒पी॒च्य॑म् ॥ इ॒त्था । च॒न्द्रम॑स: । गृ॒हे ॥४१.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अत्राह गोरमन्वत नाम त्वष्टुरपीच्यम्। इत्था चन्द्रमसो गृहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अत्र । अह । गो: । अमन्वत । नाम । त्वष्टु: । अपीच्यम् ॥ इत्था । चन्द्रमस: । गृहे ॥४१.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 41; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    १. (अत्र अह) = यहाँ ही, गतमन्त्र के अनुसार अश्व के सिर में ही-सब विषयों का व्यापन करनेवाले मस्तिष्क में (गोः अमन्व्त) = ज्ञान की वाणियों का-वेदधेनु का मनन करते हैं। इसी मस्तिष्क में वेद का तत्व स्पष्ट होता है। यहाँ ही (त्वष्टः) = उस निर्माता के (अपीच्यम्) = सर्वत्र अन्तर्हित नाम तेज व यश को भी जान पाते हैं। ये गतमन्त्र के शर्यणावान् पुरुष ही सूर्य आदि सब पिण्डों को प्रभु की दीप्ति से दीत होता हुआ देखते हैं। २. (इत्था) = इसप्रकार वेदज्ञान को व प्रभु के यश को मनन करते हुए ये व्यक्ति (चन्द्रमसः गृहे) = आहादमय प्रभु के गृह में निवास करते हैं [चदि आहादे]।

    भावार्थ - वासनाशून्य पुरुष के दीप्त मस्तिष्क में ही वेदज्ञान व प्रभु के यश का मनन होता है। यह पुरुष ऐसा करता हुआ आनन्दमय प्रभु में ही निवास करता है। प्रभु के यश का मनन करनेवाला यह व्यक्ति प्रभु-स्तवनपूर्वक क्रियामय जीवनवाला होता है, अतः यह 'कुरुसुति' कहलाता है। यह इन्द्र का स्तवन करता है -

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