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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 51

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 51/ मन्त्र 2
    सूक्त - प्रस्कण्वः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-५१

    श॒तानी॑केव॒ प्र जि॑गाति धृष्णु॒या ह॑न्ति वृ॒त्राणि॑ दा॒शुषे॑। गि॒रेरि॑व॒ प्र रसा॑ अस्य पिन्विरे॒ दत्रा॑णि पुरु॒भोज॑सः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    श॒तानी॑काऽइव । प्र । जि॒ग॒ति॒ । धृ॒ष्णु॒ऽया । हन्ति॑ । वृ॒त्राणि॑ । दा॒शुषे॑ ॥ गि॒रे:ऽइ॑व । प्र । रसा॑: । अ॒स्य॒ । पि॒न्वि॒रे॒ । दत्रा॑णि । पु॒रु॒ऽभोज॑स: ॥५१.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    शतानीकेव प्र जिगाति धृष्णुया हन्ति वृत्राणि दाशुषे। गिरेरिव प्र रसा अस्य पिन्विरे दत्राणि पुरुभोजसः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    शतानीकाऽइव । प्र । जिगति । धृष्णुऽया । हन्ति । वृत्राणि । दाशुषे ॥ गिरे:ऽइव । प्र । रसा: । अस्य । पिन्विरे । दत्राणि । पुरुऽभोजस: ॥५१.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 51; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    १. (शत-अनीका इव) = सैकड़ों सैन्यों के समान ये प्रभु (प्रजिगाति) = आगे बढ़ते हैं और (धृष्णया) = अपनी धर्षण-शक्ति से (दाशुषे) = आत्मार्पण करनेवाले पुरुष के लिए (वृत्राणि हन्ति) = वासनाओं को विनष्ट करते हैं। हम प्रभु के प्रति अपना अर्पण करें-प्रभु हमारे शत्रुओं का विनाश करेंगे। २. अब शत्रुविनाश के बाद (अस्य पुरुभोजस:) = इस अनन्त पालक धनोंवाले प्रभु के (दत्राणि) = दान (पिन्विरे) = इसप्रकार हमें सिक्त व प्रीणित करनेवाले होते हैं, (इव) = जैसेकि (गिरे:) = पर्वत के (रसा:) = रस । पर्वतों से बहनेवाले जल जैसे प्रीति का कारण बनते हैं, इसीप्रकार प्रभु से दिये गये धन हमपर सुखों का सेचन करनेवाले होते हैं।

    भावार्थ - प्रभु अपने अनन्त सामर्थ्य से हमारे शत्रुओं को विनष्ट करते हैं और इस प्रभु के दान हमें सुखों से सिबत करनेवाले होते हैं।

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