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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 51

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 51/ मन्त्र 3
    सूक्त - पुष्टिगुः देवता - इन्द्रः छन्दः - प्रगाथः सूक्तम् - सूक्त-५१

    प्र सु श्रु॒तं सु॒राध॑स॒मर्चा॑ श॒क्रम॒भिष्ट॑ये। यः सु॑न्व॒ते स्तु॑व॒ते काम्यं॒ वसु॑ स॒हस्रे॑णेव॒ मंह॑ते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प्र । सु । श्रु॒तम । सु॒ऽराध॑सम् । अर्च॑ । श॒क्रम् । अ॒भिष्ठ॑ये ॥ य: । सु॒न्व॒ते । स्तु॒व॒ते । काम्य॑म् । वसु॑ । स॒हस्रे॑णऽइव । मंहते ॥५१.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    प्र सु श्रुतं सुराधसमर्चा शक्रमभिष्टये। यः सुन्वते स्तुवते काम्यं वसु सहस्रेणेव मंहते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    प्र । सु । श्रुतम । सुऽराधसम् । अर्च । शक्रम् । अभिष्ठये ॥ य: । सुन्वते । स्तुवते । काम्यम् । वसु । सहस्रेणऽइव । मंहते ॥५१.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 51; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    १. उस (सुश्रुतम्) = उत्तम ज्ञानवाले, (सुराधसम्) = उत्तम ऐश्वयाँवाले (शक्रम्) = सर्वशक्तिमान् प्रभु को (अभिष्टये) = इष्ट-प्राप्ति के लिए अथवा वासनारूप शत्रुओं पर आक्रमण के लिए [अभिष्टि attack] प्र अर्च-प्रकर्षेण पूजित कर । प्रभु की अर्चना से वासनारूप शत्रुओं पर विजय प्राप्त करके हम भी उत्तम ज्ञान-ऐश्वर्य व शक्तिवाले बनेंगे। २. उस प्रभु का तू पूजन कर जोकि (सुन्वते) = यज्ञशील (स्तुवते) = स्तोता के लिए (काम्यं वसु) = कमनीय [चाहने योग्य] धन को (सहस्त्रेण इव) = हजारों के रूप में (मंहते) = देते हैं।

    भावार्थ - प्रभु-पूजन से वासनाओं का विजय करके हम उत्तम ज्ञान-ऐश्वर्य व शक्ति को प्राप्त करें। ऐश्वर्य को प्रास करके हम यज्ञशील स्तोता बनें। इसप्रकार हम प्रभु के काम्य वसुओं की प्राप्ति के पात्र होंगे।

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