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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 53/ मन्त्र 3
य उ॒ग्रः सन्ननि॑ष्टृतः स्थि॒रो रणा॑य॒ संस्कृ॑तः। यदि॑ स्तो॒तुर्म॒घवा॑ शृ॒णव॒द्धवं॒ नेन्द्रो॑ योष॒त्या ग॑मत् ॥
स्वर सहित पद पाठय: । उ॒ग्र: । सन् । अनि॑:ऽस्तृत: । स्थि॒र: । रणा॑य । संस्कृ॑त: ॥ यदि॑ । स्तो॒तु: । म॒घऽवा॑ । शृ॒ण्व॑त् । हव॑म् । न । इन्द्र॑: । यो॒ष॒ति॒ । आ । ग॒म॒त् ॥५३.३॥
स्वर रहित मन्त्र
य उग्रः सन्ननिष्टृतः स्थिरो रणाय संस्कृतः। यदि स्तोतुर्मघवा शृणवद्धवं नेन्द्रो योषत्या गमत् ॥
स्वर रहित पद पाठय: । उग्र: । सन् । अनि:ऽस्तृत: । स्थिर: । रणाय । संस्कृत: ॥ यदि । स्तोतु: । मघऽवा । शृण्वत् । हवम् । न । इन्द्र: । योषति । आ । गमत् ॥५३.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 53; मन्त्र » 3
विषय - न योषति, आगमत्
पदार्थ -
१. (यः) = जो प्रभु (उग्रः सन्) = तेजस्वी होते हुए (अनिष्ट्रत:) = कभी स्थानभ्रष्ट व हिंसित नहीं होते। वे प्रभु (स्थिर:) = स्थिर हैं-अविनाशी हैं। (रणाय संस्कृत:) = रमणीयता के लिए अथवा वासनाओं के साथ संग्राम के लिए सदा हृदयों में योगिजनों से संस्कृत होते हैं। हृदयों में योगिजन प्रभु को देखने का प्रयत्न करते हैं-प्रभु इनके जीवन को रमणीय व विजयी बनाते हैं। २. ये (मघवा) = ऐश्वर्यशाली प्रभु (यदि) = यदि (स्तोतुः) = स्तोता की (हवम्) = पुकार को (भृणवत्) = सुनते हैं तो (इन्द्रः) = वे परमैश्वर्यशाली प्रभु न (योषति) = अलग नहीं रहते। (आगमत्) = वे अवश्य आते ही हैं। हमारी आराधना को सुनते ही प्रभु प्राप्त होते हैं। वे प्रभु हमारे शत्रुओं के विनाश का कारण बनते हैं।
भावार्थ - प्रभु तेजस्वी होते हुए अहिसित है। वे स्थिर प्रभु शत्रुसंहार द्वारा हमारे जीवनों को रमणीय बनाते हैं। हमारी आराधना सुनते ही हमें प्राप्त होते हैं। यह प्रभु-स्तवन करनेवाला 'रेभः' अगले सूक्त का ऋषि है -
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