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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 53/ मन्त्र 1
क ईं॑ वेद सु॒ते सचा॒ पिब॑न्तं॒ कद्वयो॑ दधे। अ॒यं यः पुरो॑ विभि॒नत्त्योज॑सा मन्दा॒नः शि॒प्र्यन्ध॑सः ॥
स्वर सहित पद पाठक: । ई॒म् । वे॒द॒ । सु॒ते । सचा॑ । पिब॑न्तम् । कत् । वय॑: । द॒धे॒ ॥ अ॒यम् । य: । पुर॑:। वि॒ऽभि॒नत्ति॑ । ओज॑सा । म॒न्दा॒न: । शि॒प्री । अन्ध॑स: ॥ ५३.१॥
स्वर रहित मन्त्र
क ईं वेद सुते सचा पिबन्तं कद्वयो दधे। अयं यः पुरो विभिनत्त्योजसा मन्दानः शिप्र्यन्धसः ॥
स्वर रहित पद पाठक: । ईम् । वेद । सुते । सचा । पिबन्तम् । कत् । वय: । दधे ॥ अयम् । य: । पुर:। विऽभिनत्ति । ओजसा । मन्दान: । शिप्री । अन्धस: ॥ ५३.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 53; मन्त्र » 1
विषय - पुरः विभिनत्ति
पदार्थ -
१. (क:) = कोई विरला पुरुष ही (ईम्) = निश्चय से (सुते) = सोम का सम्पादन होने पर-शरीर में सोम का रक्षण होने पर (सचा) = अपने में समवेत होनेवाले-सदा साथ रहनेवाले (पिबन्तम्) = सोम का पान करनेवाले-सोम को शरीर में ही व्याप्त करनेवाले उस प्रभु को वेद-जानता है। प्रभु को जानकर (कत्) = [के तनोति] आनन्द का विस्तार करनेवाले (वय:) = आयुष्य को (दधे) = धारण करता है। २. (अयम्) = यह (यः) = जो (मन्दान:) = उस प्रभु का शंसन करनेवाला होता है, (अन्धसः) = सोम के हेतु से-वीर्यरक्षण के हेतु से (शिप्री) = उत्तम हनुओं व नासिकावाला बनता है, अर्थात् सात्त्विक भोजन को चबाकर खाता है और प्राणसाधना में प्रवृत्त होता है, वह (ओजसा) = ओजस्विता के द्वारा (पुरःविभिनत्ति) = असुरों की पुरियों का विदारण करनेवाला होता है। 'पुरन्दर' बनता है। यह काम-क्रोध-लोभ की पुरियों का विदारण करके उत्तम शरीर [इन्द्रियों], मन व बुद्धिवाला बनता है। काम के विनाश से इसकी इन्द्रियशक्तियाँ जीर्ण नहीं होती, क्रोधविनाश से इसका मन शान्त रहता है तथा लोभ को दूर करने से यह अविकल बुद्धिवाला होता है।
भावार्थ - हम प्रभु का स्मरण करते हुए सोम-रक्षण द्वारा आनन्दमय जीवनवाले बनें। 'प्रभु-स्तवन, सात्त्विक भोजन को चबाकर खाने तथा प्राणायाम' द्वारा सोम-रक्षण करते हुए ओजस्वी बनें तथा 'काम-क्रोध-लोभ' की नगरियों का विनाश करें।
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