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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 54

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 54/ मन्त्र 2
    सूक्त - रेभः देवता - इन्द्रः छन्दः - उपरिष्टाद्बृहती सूक्तम् - सूक्त-५४

    समीं॑ रे॒भासो॑ अस्वर॒न्निन्द्रं॒ सोम॑स्य पी॒तये॑। स्वर्पतिं॒ यदीं॑ वृ॒धे धृ॒तव्र॑तो॒ ह्योज॑सा॒ समू॒तिभिः॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सम् । ई॒म् । रे॒भास॑: । अ॒स्व॒र॒न् । इन्द्र॑म् । सोम॑स्य । पी॒तवे॑ ॥ स्व॑:अपतिम् । यत् । ई॒म् । वृ॒धे । धृ॒तऽव्र॑त: । हि । ओज॑सा । सम् । ऊ॒तिऽभि॑: ॥५४.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    समीं रेभासो अस्वरन्निन्द्रं सोमस्य पीतये। स्वर्पतिं यदीं वृधे धृतव्रतो ह्योजसा समूतिभिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सम् । ईम् । रेभास: । अस्वरन् । इन्द्रम् । सोमस्य । पीतवे ॥ स्व:अपतिम् । यत् । ईम् । वृधे । धृतऽव्रत: । हि । ओजसा । सम् । ऊतिऽभि: ॥५४.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 54; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    १. (रेभासः) = स्तोता लोग (ईम्) = निश्चय से (सोमस्य पीतये) = सोम का शरीर में ही रक्षण के लिए (इन्द्रम्) = परमैश्वर्यशाली प्रभु को (सम् अस्वरन्) = संस्तुत करते हैं। प्रभु-स्मरण से बासनाओं को दूर भगाते हुए ये स्तोता सोम को शरीर में सुरक्षित करने में समर्थ होते हैं, २. उस प्रभु का स्तवन करते हैं जो (स्व:पतिम्) = प्रकाश के स्वामी हैं। (यत्) = चूंकि वे प्रभु (ईम्) = निश्चय से (वधे) = स्तोता की वृद्धि के लिए होते हैं, वे प्रभु (ओजसा) = ओजस्विता के साथ (हि) = निश्चय से (ऊतिभि:) = रक्षणों से (सम्) = [वृधे]-हमारे वर्धन के लिए होते हैं। ये प्रभु (धृतव्रत:) = हमारे व्रतों का धारण करनेवाले हैं। प्रभु से रक्षित होकर ही हम व्रतों का पालन कर पाते हैं।

    भावार्थ - हम प्रभु-स्तवन द्वारा शक्तिशाली बनकर वासनाओं का संहार करते हुए ब्रतमय जीवन बिता पाते हैं और सोम का शरीर में रक्षण कर सकते हैं।

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