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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 54

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 54/ मन्त्र 3
    सूक्त - रेभः देवता - इन्द्रः छन्दः - उपरिष्टाद्बृहती सूक्तम् - सूक्त-५४

    ने॒मिं न॑मन्ति॒ चक्ष॑सा मे॒षं विप्रा॑ अभि॒स्वरा॑। सु॑दी॒तयो॑ वो अ॒द्रुहो॑ऽपि॒ कर्णे॑ तर॒स्विनः॒ समृक्व॑भिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ने॒मिम् । न॒म॒न्त‍ि॒ । चक्ष॑सा । मे॒षम् । विप्रा॑: । अ॒भि॒ऽस्वरा॑ ॥ सु॒ऽदी॒तय॑:। व॒: । अ॒द्रुह॑: । अपि॑ । कर्णे॑ । त॒र॒स्विन॑: । सम् । ऋक्व॑ऽभि: ॥५४.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    नेमिं नमन्ति चक्षसा मेषं विप्रा अभिस्वरा। सुदीतयो वो अद्रुहोऽपि कर्णे तरस्विनः समृक्वभिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    नेमिम् । नमन्त‍ि । चक्षसा । मेषम् । विप्रा: । अभिऽस्वरा ॥ सुऽदीतय:। व: । अद्रुह: । अपि । कर्णे । तरस्विन: । सम् । ऋक्वऽभि: ॥५४.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 54; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    १. (विप्रः) = ज्ञानी लोग (चक्षसा) = ज्ञान के हेतु से (नेमिम्) = सब शत्रुओं को झुका देनेवाले उस प्रभु को (नमन्ति) = नमस्कार करते हैं। (मेषम्) = सुखों से सिक्त करनेवाले उस प्रभुको (अभिस्वरा) = प्रात: सायं स्तवन के द्वारा [स्वृ शब्दे] [नमन्ति] नमस्कार करते हैं । २. ये स्तोता ब्राह्मण (व:) = तुम्हारे (सुदीतयः) = उत्तम दीपन करनेवाले होते हैं-स्वयं ज्ञानदीस होते हुए औरों के लिए ज्ञान देनेवाले होते हैं। (अद्रुहः) = किसी का द्रोह नहीं करते। (अपि) = द्रोहशून्य होते हुए भी कर्णे [कृविक्षेपे]-शत्रुओं के विक्षेपरूप कार्य में (ऋक्वभिः सम्) = ऋचाओं से-प्रभुस्तोत्रों से संगत हुए-हुए (तरस्विन:) = अतिशयेन वेगवान् होते हैं। द्रोहशून्य होते हुए भी ये लोग वासनाशून्य शत्रुओं को विनष्ट करने में सबसे तीव्र गतिवाले होते हैं।

    भावार्थ - हम प्रभु का स्तवन करें। दीप्त व द्रोहशून्य जीवनवाले बनकर वासनारूप शत्रुओं को विकीर्ण करनेवाले हों। अगले सूक्त का ऋषि भी रेभ' ही है -

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