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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 55

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 55/ मन्त्र 1
    सूक्त - रेभः देवता - इन्द्रः छन्दः - अतिजगती सूक्तम् - सूक्त-५५

    तमिन्द्रं॑ जोहवीमि म॒घवा॑नमु॒ग्रं स॒त्रा दधा॑न॒मप्र॑तिष्कुतं॒ शवां॑सि। मंहि॑ष्ठो गी॒र्भिरा च॑ य॒ज्ञियो॑ व॒वर्त॑द्रा॒ये नो॒ विश्वा॑ सु॒पथा॑ कृणोतु व॒ज्री ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    तम् । इन्द्र॑म् । जो॒ह॒वी॒मि॒ । म॒घऽवा॑नम् । उ॒ग्रम् । स॒त्रा । दधा॑नम् । अप्र॑तिऽस्कुतम् । शवां॑सि ॥ मंहि॑ष्ठ । गी॒ऽभि: । आ । च॒ । य॒ज्ञिय॑: । व॒वर्त॑त् । रा॒ये । न॒: । विश्वा॑ । सु॒ऽपथा॑ । कृ॒णो॒तु॒ । व॒ज्री ॥५५.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    तमिन्द्रं जोहवीमि मघवानमुग्रं सत्रा दधानमप्रतिष्कुतं शवांसि। मंहिष्ठो गीर्भिरा च यज्ञियो ववर्तद्राये नो विश्वा सुपथा कृणोतु वज्री ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    तम् । इन्द्रम् । जोहवीमि । मघऽवानम् । उग्रम् । सत्रा । दधानम् । अप्रतिऽस्कुतम् । शवांसि ॥ मंहिष्ठ । गीऽभि: । आ । च । यज्ञिय: । ववर्तत् । राये । न: । विश्वा । सुऽपथा । कृणोतु । वज्री ॥५५.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 55; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    १. (तम्) = उस (इन्द्रम्) = सर्वशक्तिमान् व परमैश्वर्यशाली प्रभु को (जोहवीमि) = पुकारता हूँ, जोकि (मघवानम्) = सब ऐश्वर्यों के स्वामी है, (उग्रम्) = तेजस्वी हैं, (सत्रा) = सदा (शवांसि दधानम्) = बलों का धारण करनेवाले हैं, (अप्रतिष्कुतम्) = प्रतिशब्द से रहित हैं-जिनका युद्ध में कोई आह्वान नहीं कर सकता। २. वे प्रभु (मंहिष्ठ:) = सर्वमहान् दाता हैं (च) = और (गीभि:) = ज्ञान की वाणियों से उपासना के योग्य हैं। ये प्रभु (आववर्तत्) = सर्वत्र वर्तमान हैं। (वज्री) = ये वज्रहस्त प्रभु (राये) = ऐश्वर्य के लिए (न:) = हमारे (विश्वा) = सब सुपथा उत्तम मार्गों को (कृणोत) = करें।

    भावार्थ - हम उन प्रभु को पुकारें जो ऐश्वर्यशाली-तेजस्वी-बल के धारक व अद्वितीय योद्धा है। हम उस सर्वप्रद प्रभु को पूजें। प्रभु हमें सत्पथ से ऐश्वर्य की ओर ले-चलें।

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