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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 55

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 55/ मन्त्र 3
    सूक्त - रेभः देवता - इन्द्रः छन्दः - बृहती सूक्तम् - सूक्त-५५

    यमि॑न्द्र दधि॒षे त्वमश्वं॒ गां भा॒गमव्य॑यम्। यज॑माने सुन्व॒ति दक्षि॑णावति॒ तस्मि॒न्तं धे॑हि॒ मा प॒णौ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । इ॒न्द्र॒ । द॒धि॒षे । त्वम् । अश्व॑म् । गाम् । भा॒गम् । अव्य॑यम् ॥ यज॑माने । सु॒न्व॒ति । दक्षिणाऽवति । तस्मि॑न् । तम् । धे॒हि॒ । मा । प॒णौ ॥५५.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यमिन्द्र दधिषे त्वमश्वं गां भागमव्ययम्। यजमाने सुन्वति दक्षिणावति तस्मिन्तं धेहि मा पणौ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । इन्द्र । दधिषे । त्वम् । अश्वम् । गाम् । भागम् । अव्ययम् ॥ यजमाने । सुन्वति । दक्षिणाऽवति । तस्मिन् । तम् । धेहि । मा । पणौ ॥५५.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 55; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    १.हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (त्वम्) = आप (यम्) = जिस (अश्वं गाम्) = कर्मेन्द्रियसमूह तथा ज्ञानेन्द्रियसमूह को तथा (अव्ययं भागम्) = [अवि अय्] विविध योनियों में भटकने का कारण न बननेवाले भजनीय धन को यजमाने यज्ञशील पुरुष में, सुन्वति-सोम का सम्पादन करनेवाले पुरुष में तथा दक्षिणावति-दानशील पुरुष में दधिषे धारण करते हैं, तस्मिन्-उसी 'गौ, अश्व व अव्ययभाग' में तम्-उस स्तोता को धेहि-धारण कीजिए। २. उस 'गौ, अश्व व अव्ययभाग' को मा मत दीजिए जिसे हम पणी-वणिक् वृत्तिवाले कृपण पुरुष में देखते हैं। कृपण-पुरुष का धन भी अव्यय-[अ-व्यय] दान आदि में व्ययित न होकर गढ़ा ही रहता है।

    भावार्थ - प्रभु के अनुग्रह से हम यज्ञशील, सोम का सम्पादन करनेवाले व दानशील बनें। ऐसे बनकर उत्तम कर्मेन्द्रियों, ज्ञानेन्द्रियों व प्रशस्त धनोंवाले हों। कृपण न बनें। यह प्रशस्तेन्द्रियोंवाला स्तोता 'गोतम' बनता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है -

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