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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 55/ मन्त्र 2
या इ॑न्द्र॒ भुज॒ आभ॑रः॒ स्वर्वाँ॒ असु॑रेभ्यः। स्तो॒तार॒मिन्म॑घवन्नस्य वर्धय॒ ये च॒ त्वे वृ॒क्तब॑र्हिषः ॥
स्वर सहित पद पाठया: । इ॒न्द्र॒ । भुज॑: । आ । अभ॑र: । स्व॑:ऽवान् । असु॑रेभ्य: ॥ स्तो॒तार॑म् । इत् । म॒घ॒ऽव॒न् । अ॒स्य॒ । व॒र्ध॒य॒ । ये । च॒ । त्वे इति॑ । वृ॒क्तऽब॑र्हिष: ॥५५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
या इन्द्र भुज आभरः स्वर्वाँ असुरेभ्यः। स्तोतारमिन्मघवन्नस्य वर्धय ये च त्वे वृक्तबर्हिषः ॥
स्वर रहित पद पाठया: । इन्द्र । भुज: । आ । अभर: । स्व:ऽवान् । असुरेभ्य: ॥ स्तोतारम् । इत् । मघऽवन् । अस्य । वर्धय । ये । च । त्वे इति । वृक्तऽबर्हिष: ॥५५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 55; मन्त्र » 2
विषय - 'असुरः स्तोता, वृक्तबर्हिष्'
पदार्थ -
१. हे (स्वर्वान्) = प्रकाश व आनन्द से युक्त (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (याः भुज:) = जिन भोग-साधन धनों को (असुरेभ्यः आभरः) = [असव: प्राणाः, तेषु रमन्ते] प्राणसाधक लोगों के लिए प्राप्त कराते हैं। हे (मघवन्) = ऐश्वर्यशालिन् प्रभो। (स्तोतारम् इत्) = स्तोता को निश्चय से (अस्य वर्धय) = इसके द्वारा [अनेन] बढ़ाइए। प्राणसाधना करनेवाले जिन धनों को प्राप्त करते हैं, वे धन इन स्तोताओं को भी प्राप्त हो। २. (ये च) = और जो (त्वे) = आपमें निवास करते हुए (वृक्तबर्हिषः) = हदय क्षेत्र को पापों से रहित करते हैं, उन्हें इन धनों के द्वारा बढ़ाइए।
भावार्थ - हम 'प्राणसाधक, स्तोता व निष्पाप' बनते हुए उन ऐश्वर्यों को प्राप्त करें जो हमारे जीवनों को प्रकाशमय बनानेवाले हैं।
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