अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 62/ मन्त्र 6
त्वमि॑न्द्राभि॒भूर॑सि॒ त्वं सूर्य॑मरोचयः। वि॒श्वक॑र्मा वि॒श्वदे॑वो म॒हाँ अ॑सि ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । इ॒न्द्र॒ । अ॒भि॒ऽभू: । अ॒सि॒ । त्वम् । सूर्य॑म् । अ॒रो॒च॒य॒: ॥ वि॒श्वऽक॑र्मा । वि॒श्वऽदे॑व: । म॒हान् । अ॒सि॒ ॥६२.६॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमिन्द्राभिभूरसि त्वं सूर्यमरोचयः। विश्वकर्मा विश्वदेवो महाँ असि ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । इन्द्र । अभिऽभू: । असि । त्वम् । सूर्यम् । अरोचय: ॥ विश्वऽकर्मा । विश्वऽदेव: । महान् । असि ॥६२.६॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 62; मन्त्र » 6
विषय - विश्वकर्मा विश्वदेव:-महान्
पदार्थ -
१. हे (इन्द्र) = सब शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो! (त्वम्) = आप (अभिभूः असि) = हमारे सब काम-क्रोध आदि शत्रुओं का अभिभव करनेवाले हैं और (त्वम्) = आप ही इन शत्रुओं का विनाश करके हमारे मस्तिष्करूप धुलोक में सूर्यम् (अरोचय:) = ज्ञानसूर्य को दीस करते हैं। बाह्य आकाश में सूर्य आदि का दीपन आपके द्वारा ही हो रहा है। तस्य भासा सर्वमिदं विभाति'। २. हे प्रभो! आप ही (विश्वकर्मा) = सब कर्मों के करनेवाले हैं। सब कार्यशक्ति आप से ही प्राप्त होती है। आप (विश्वदेवः) = सब दिव्य गुणोंवाले हैं। जैसे सूर्य आदि देवों को देवत्व आपसे ही प्राप्त होता है, इसी प्रकार सब देवपुरुषों को देवीसम्पत्ति भी आप ही प्राप्त कराते हैं। इसी से आप (महान् असि) = महान् है-पूजनीय है।
भावार्थ - प्रभु हमारे सब काम-क्रोध आदि शत्रुओं को अभिभूत करके हमारे मस्तिष्करूप धुलोक में ज्ञानसूर्य का उदय करते हैं। हम सदा उस 'विश्वकर्मा-विश्वदेव-महान्' प्रभु का पूजन करें।
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