अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 62/ मन्त्र 7
वि॒भ्राजं॒ ज्योति॑षा॒ स्वरग॑च्छो रोच॒नं दि॒वः। दे॒वास्त॑ इन्द्र स॒ख्याय॑ येमिरे ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒ऽभ्राज॑न् । ज्योति॑षा । स्व॑: । अग॑च्छ । रो॒च॒नम् । दि॒व: ॥ दे॒वा: । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । स॒ख्याय॑ । ये॒मि॒रे॒ ॥६२.७॥
स्वर रहित मन्त्र
विभ्राजं ज्योतिषा स्वरगच्छो रोचनं दिवः। देवास्त इन्द्र सख्याय येमिरे ॥
स्वर रहित पद पाठविऽभ्राजन् । ज्योतिषा । स्व: । अगच्छ । रोचनम् । दिव: ॥ देवा: । ते । इन्द्र । सख्याय । येमिरे ॥६२.७॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 62; मन्त्र » 7
विषय - संयम द्वारा प्रभु-मैत्री की प्राप्ति
पदार्थ -
१. हे प्रभो! ज्योतिषा विभाजन-ज्योति से दीप्त होते हुए आप स्व: अगच्छ:-सुख को प्राप्त होते हैं, अर्थात् आप सर्वज्ञ है और अतएव आनन्दमय हैं। आप ही अपने उपासकों को दिवः रोचनम-मस्तिष्करूप घलोक की ज्ञानदीति को [अगच्छ:-अगमय-] प्राप्त कराते हैं। २. हे इन्द्र-परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! देवा:-देववृत्ति के पुरुष ते-आपकी सख्याय-मित्रता के लिए येमिरे-अपने को नियमों के बन्धनों में बाँधते हैं। यह संयम ही इन देवों को महादेव का मित्र बनाता है।
भावार्थ - प्रभु प्रकाशमय हैं, अतएव आनन्दमय हैं-उपासकों को भी प्रभु ज्ञान-दीप्ति प्राप्त कराते हैं। संयम-रज में अपने को बाँधकर देववृत्ति के पुरुष महादेव के मित्र बनते हैं।
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