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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 75

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 75/ मन्त्र 2
    सूक्त - परुच्छेपः देवता - इन्द्रः छन्दः - अत्यष्टिः सूक्तम् - सूक्त-७५

    वि॒दुष्टे॑ अ॒स्य वी॒र्यस्य पू॒रवः॒ पुरो॒ यदि॑न्द्र॒ शार॑दीर॒वाति॑रः सासहा॒नो अ॒वाति॑रः। शास॒स्तमि॑न्द्र॒ मर्त्य॒मय॑ज्युं शवसस्पते। म॒हीम॑मुष्णाः पृथि॒वीमि॒मा अ॒पो म॑न्दसा॒न इ॒मा अ॒पः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वि॒दु: । ते॒ । अ॒स्य । वी॒र्यस्य॑ । पू॒रव॑: । पुर॑: । यत् । इ॒न्द्र॒ । शार॑दी: । अ॒व॒ऽअति॑र: । स॒स॒हा॒न: । अ॒व॒ऽअति॑र: ॥ स॒स॒हा॒न: । अ॒व॒ऽअति॑र: ॥ शास॑: । तम् । इ॒न्द्र॒ । मर्त्य॑म् । अय॑ज्युम् । श॒व॒स॒: । प॒ते॒ ॥ म॒हीम् । अ॒मु॒ष्णा॒: । पृ॒थि॒वीम् । इ॒मा: । अ॒प: । म॒न्द॒सा॒न: । इ॒मा: । अ॒प: ॥७५.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    विदुष्टे अस्य वीर्यस्य पूरवः पुरो यदिन्द्र शारदीरवातिरः सासहानो अवातिरः। शासस्तमिन्द्र मर्त्यमयज्युं शवसस्पते। महीममुष्णाः पृथिवीमिमा अपो मन्दसान इमा अपः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    विदु: । ते । अस्य । वीर्यस्य । पूरव: । पुर: । यत् । इन्द्र । शारदी: । अवऽअतिर: । ससहान: । अवऽअतिर: ॥ ससहान: । अवऽअतिर: ॥ शास: । तम् । इन्द्र । मर्त्यम् । अयज्युम् । शवस: । पते ॥ महीम् । अमुष्णा: । पृथिवीम् । इमा: । अप: । मन्दसान: । इमा: । अप: ॥७५.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 75; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    १. (पूरव:) = अपना पालन व पूरण करनेवाले लोग, हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमन् प्रभो! (ते) = आपके (अस्य वीर्यस्य) = इस पराक्रम का (विदुः) = ज्ञान रखते हैं (यत्) = कि आप (सासहान:) = शत्रुओं का पराभव करते हुए (शारदी:) = हमारी शक्तियों को शीर्ण करनेवाली (पुर:) = आसुर पुरियों को (अवातिर:) विध्वस्त कर देते हैं और (अवातिरः) = अवश्य विध्वस्त कर देते हैं। काम की नगरी हमारी इन्द्रियशक्तियों को शीर्ण करती है, क्रोधनगरी मन को तथा लोभनगरी बुद्धि को शीर्ण कर देती है। इन शारदी पुरियों को प्रभु ही विध्वस्त करते हैं। २. हे (शवसस्पते) = सब शक्तियों के स्वामिन् ! (इन्द्र) = शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो! आप (तम्) = उस (अयज्यूम) = अयज्ञशील (मर्त्यम्) = मनुष्य को (शास:) = निगृहीत करते हो। यज्ञ आदि कर्मों में लगे रहने पर हम काम-क्रोध आदि के शिकार नहीं होते। ३. हे प्रभो! अपने पुत्रों की यज्ञशीलता से (मन्दसान:) = प्रसन्नता का अनुभव करते हुए आप (महीं पृथिवीम्) = इस महनीय पृथिवी को तथा (इमाः अप:) = इन जलों को (अमुष्णा:) = [ surpass] लॉप जाते हो। आपकी महिमा को यह विशाल पृथिवी तथा अत्यन्त व्यापक रूप को धारण करनेवाले जल भी नहीं व्याप्त कर सकते। (इमा: अप:) = ये जल वस्तुत: आपकी महिमा से ही महत्त्व को धारण करते हैं। इनमें रस-रूप से आप ही निवास करते हो 'रसोऽहमप्सु कौन्तेय'। पृथिवी भी आपकी महिमा से ही महिमान्वित होती है 'पुण्यो गन्धः पृथिव्याञ्च'। हमारे शत्रुओं को नष्ट करके इस शरीररूप पृथिवी व रेत:कणरूप जलों को भी आप ही उत्तम गन्ध व रसवाला बनाते है |

    भावार्थ - प्रभु की महिमा को पृथिवी व जल व्याप्त नहीं कर पाते। उपासित हुए-हुए ये प्रभु ही हमारे शत्रुओं का विध्वंस करके हमारे शरीर व शरीरस्थ रेत:कणों को सुरक्षित करते है|

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