Sidebar
अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 8/ मन्त्र 3
आपू॑र्णो अस्य क॒लशः॒ स्वाहा॒ सेक्ते॑व॒ कोशं॑ सिषिचे॒ पिब॑ध्यै। समु॑ प्रि॒या आव॑वृत्र॒न्मदा॑य प्रदक्षि॒णिद॒भि सोमा॑स॒ इन्द्र॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठआऽपू॑र्ण: । अ॒स्य॒ । क॒लश॑: । स्वाहा॑ । सेक्ता॑ऽइव । कोश॑म् । सि॒स॒चे॒ । पिब॑ध्यै ॥ सम् । ऊं॒ इति॑ । प्रि॒या । आ । अ॒वृ॒त्र॒न् । मदा॑य । प्र॒ऽद॒क्षि॒णित् । अ॒भि । सोमा॑स: । इन्द्र॑म् ॥८.३॥
स्वर रहित मन्त्र
आपूर्णो अस्य कलशः स्वाहा सेक्तेव कोशं सिषिचे पिबध्यै। समु प्रिया आववृत्रन्मदाय प्रदक्षिणिदभि सोमास इन्द्रम् ॥
स्वर रहित पद पाठआऽपूर्ण: । अस्य । कलश: । स्वाहा । सेक्ताऽइव । कोशम् । सिसचे । पिबध्यै ॥ सम् । ऊं इति । प्रिया । आ । अवृत्रन् । मदाय । प्रऽदक्षिणित् । अभि । सोमास: । इन्द्रम् ॥८.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 8; मन्त्र » 3
विषय - कलश की आपूर्णता
पदार्थ -
१. (अस्य) = इस जितेन्द्रिय पुरुष का (कलश:) = [कला: शेरते अस्मिन्] 'प्राण' आदि १६ कलाओं से युक्त यह शरीर-कलश (आपूर्णा) = सब दृष्टिकोणों से पूर्ण होता है। (स्वाहा) = यह [सु+आह] सदा उत्तम स्तुतिशब्दों को बोलनेवाला होता है। यह (सेक्ता इव) = सेचन करनेवाले के समान (कोशं सिसिचे) = अन्नमय आदि कोशों से बने इस शरीर को सोम से सिक्त करता है। (पिबध्यै) = यह इन सोमकणों को पीने के लिए होता है-इनको शरीर में ही व्याप्त करनेवाला होता है। २.(उ) = निश्चय से (इन्द्रम) = इस जितेन्द्रिय पुरुष को (प्रियाः सोमास:) = प्रीति के जनक ये सोम कण (मदायः) = जीवन में आनन्द व उल्लास के लिए (प्रदक्षिणित्) = प्रदाक्षिण्य से-ठीक प्रकार (सम्) = सम्यक् (अभि) = आभिमुख्येन (आववृत्रन्) = व्याप्त करते हैं। सोमकण इसके शरीर में ही व्याप्त होते है।
भावार्थ - हम जितेन्द्रिय बनें। प्रभु के स्तुतिशब्दों का उच्चारण करते हुए सोम को शरीर में सुरक्षित करें। यह सोम ही पूर्णता व प्रसन्नता का साधन है। सोम-रक्षण द्वारा आपूर्ण कलशवाला यह व्यक्ति 'नोधा' [नव-धा] प्रभु-स्तवन का धारण करनेवाला [नु स्तुतौ] तथा शरीर के नौ द्वारों [इन्द्रियों] को धारण करनेवाला [अष्टाचक्रा नवद्वारा०] होता है। यह मेध्य [पवित्र] प्रभु को अपना अतिथि बनाता है-उसी का पूजन करता है, अत: 'मेध्यातिथि' है। यह 'नोधा' व 'मेष्यतिथि' ही क्रमश: अगले सूक्त के ऋषि हैं
इस भाष्य को एडिट करें