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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 9/ मन्त्र 1
तं वो॑ द॒स्ममृ॑ती॒षहं वसो॑र्मन्दा॒नमन्ध॑सः। अ॒भि व॒त्सं न स्वस॑रेषु धे॒नव॒ इन्द्रं॑ गी॒र्भिर्न॑वामहे ॥
स्वर सहित पद पाठतम् । व॒: । द॒स्मम् । ऋ॒ति॒ऽसह॑म् । वसो॑: । म॒न्दा॒नम् । अन्ध॑स: ॥ अ॒भि । व॒त्सम् । न । स्वस॑रेषु । धे॒नव॑: । इन्द्र॑म् । गी॒ऽभि: । न॒वा॒म॒हे॒ ॥९.१॥
स्वर रहित मन्त्र
तं वो दस्ममृतीषहं वसोर्मन्दानमन्धसः। अभि वत्सं न स्वसरेषु धेनव इन्द्रं गीर्भिर्नवामहे ॥
स्वर रहित पद पाठतम् । व: । दस्मम् । ऋतिऽसहम् । वसो: । मन्दानम् । अन्धस: ॥ अभि । वत्सम् । न । स्वसरेषु । धेनव: । इन्द्रम् । गीऽभि: । नवामहे ॥९.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 9; मन्त्र » 1
विषय - दस्मम् ऋतीषहम्
पदार्थ -
१. (तम्) = उस (इन्द्रम्) = परमैश्वर्यशाली प्रभु को (गीर्भिः) = स्तुतिवाणियों से (नवामहे) = स्तुत करते हैं, जो (वः दस्मम्) = तुम्हारे दर्शनीय व दुःखों के दूर करनेवाले हैं। (ऋतीषहम्) = आर्ति [पीड़ा] के अभिभविता व नाशक हैं तथा (वसो:) = निवास के कारणभूत (अन्धसः) = सोम के द्वारा (मन्दानम्) = आनन्दित करनेवाले हैं। २. (स्वसरेषु) = [स्वः आदित्य: एनान् सारयति-अहानि] दिनों में-दिन के निकलने पर (न) = जैसे (धेनवः गौवें वत्सम् अभि) = वत्स का लक्ष्य करके 'हम्मारव' करती हैं। उसी प्रकार हम प्रभु का स्तवन करते हैं। यह प्रभु-स्तवन ही हमारे सब कष्टों को दूर करेगा और हमें सोम-रक्षण द्वारा आनन्दित करेगा।
भावार्थ - हम प्रतिदिन प्रात:-सायं प्रभु का स्मरण करें। यह स्मरण ही पीड़ाहर व सोम रक्षण द्वारा प्रसन्नता का प्रापक है।
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