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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 9

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 9/ मन्त्र 2
    सूक्त - नोधाः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-९

    द्यु॒क्षं सु॒दानुं॒ तवि॑षीभि॒रावृ॑तं गि॒रिं न पु॑रु॒भोज॑सम्। क्षु॒मन्तं॒ वाजं॑ श॒तिनं॑ सह॒स्रिणं॑ म॒क्षू गोम॑न्तमीमहे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द्यु॒क्षम् । सु॒ऽदानु॑म् । तवि॑षीभि: । आऽवृ॑तम् । गि॒रिम् । न । पु॒रु॒ऽभोज॑सम् ॥ क्षु॒ऽमन्त॑म् । वाज॑म् । श॒तिन॑म् । स॒ह॒स्रिण॑म् । म॒क्षु । गोऽम॑न्तम् । ई॒म॒हे॒ ॥९.२॥


    स्वर रहित मन्त्र

    द्युक्षं सुदानुं तविषीभिरावृतं गिरिं न पुरुभोजसम्। क्षुमन्तं वाजं शतिनं सहस्रिणं मक्षू गोमन्तमीमहे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    द्युक्षम् । सुऽदानुम् । तविषीभि: । आऽवृतम् । गिरिम् । न । पुरुऽभोजसम् ॥ क्षुऽमन्तम् । वाजम् । शतिनम् । सहस्रिणम् । मक्षु । गोऽमन्तम् । ईमहे ॥९.२॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 9; मन्त्र » 2

    पदार्थ -
    १. (पक्षम्) = दीप्त-ज्ञानदीप्ति में निवास करनेवाले, (सदानम्) = सम्यक वासनाओं का खण्डन करनेवाले [दाप् लवने], (तविषीभिः आवृतम्) = बलों से (आवृत) = सर्वशक्तिमान् (गिरि न) = जो उपदेष्टा आचार्य के समान हैं [गृणाति], (पुरुभोजसम्) = खूब ही पालन व पोषण करनेवाले प्रभु से (वाजम्) = [wealth] ऐश्वर्य की (मक्षुः ईमहे) = शीघ्र याचना करते हैं। २. उस ऐश्वर्य की याचना करते हैं जो (क्षमन्तम्) = स्तुतिवाला है जो हमें प्रभु-स्तवन से पृथक् नहीं करता, (शतिनम्) = हमें शतवर्ष के आयुष्य को प्रात करता है (सहस्त्रिणम्) = जो हज़ारों प्राणियों का पोषण करता है तथा गोमन्तम्-प्रशस्त इन्द्रियोंवाला है। जो ऐश्वर्य हमें वासनासक्त करके क्षीण इन्द्रियशक्तिवाला नहीं कर देता।

    भावार्थ - प्रभु से हमें वह-वह ऐश्वर्य प्राप्त हो, जो हमें प्रभु-जैसा बनने में सहायक हो। हम इस धन से विषयासक्त न होकर लोकहित में प्रवृत्त हुए-हुए दीर्घजीवी व प्रभु-स्तवन की वृत्तिवाले बनें।

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