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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 80/ मन्त्र 2
त्वामु॒ग्रमव॑से चर्षणी॒सहं॒ राज॑न्दे॒वेषु॑ हूमहे। विश्वा॒ सु नो॑ विथु॒रा पि॑ब्द॒ना व॑सो॒ऽमित्रा॑न्सु॒षहा॑न्कृधि ॥
स्वर सहित पद पाठत्वाम् । उ॒ग्रम् । अव॑से । च॒र्ष॒णि॒ऽसह॑म् । राज॑न् । दे॒वेषु॑ । हू॒म॒हे॒ ॥ विश्वा॑ । सु । न॒: । वि॒थु॒रा । पि॒ब्द॒ना । व॒सो॒ इति॑ । अ॒मित्रा॑न् । सु॒ऽसहा॑न् । कृ॒धि॒ ॥८०.२॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वामुग्रमवसे चर्षणीसहं राजन्देवेषु हूमहे। विश्वा सु नो विथुरा पिब्दना वसोऽमित्रान्सुषहान्कृधि ॥
स्वर रहित पद पाठत्वाम् । उग्रम् । अवसे । चर्षणिऽसहम् । राजन् । देवेषु । हूमहे ॥ विश्वा । सु । न: । विथुरा । पिब्दना । वसो इति । अमित्रान् । सुऽसहान् । कृधि ॥८०.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 80; मन्त्र » 2
विषय - शत्रु-विजय
पदार्थ -
१. हे (देवेषु राजन्) = सूर्य आदि सब देवों में दीप्त होनेवाले, अर्थात् सूर्य आदि को दीप्ति प्राप्त करानेवाले प्रभो! (उग्रम्) = तेजस्वी (चर्षणीसहम्) = शत्रुओं का अभिभव करनेवाले (त्वाम्) = आपको (अवसे) = रक्षण के लिए (हूमहे) = हम पुकारते हैं। आपकी शक्ति व दीति से ही तो हमारा रक्षण होना है। २. हे (वसो) = हमारे निवास को उत्तम बनानेवाले प्रभो! (न:) = हमारे (विश्वा पिब्दना) = सब [पेष्टुमहाणि शत्रुसैन्यानि] पीस देने योग्य शत्रुओं को (सुविथुरा) = अच्छी प्रकार व्यथित व बाधित (कृधि) = कीजिए। (अमित्रान्) = हमारे शत्रुभूत जनों को (सुषहान्) = सुगमता से जीते जाने योग्य कीजिए। हम शत्रुओं को सुगमता से जीत सकें।
भावार्थ - हम प्रभु की उपासना करते हैं। प्रभु हमारे लिए शत्रुओं को पराजित करते हैं। प्रभु की उपासना से शत्रुओं का खूब ही हनन करता हुआ यह व्यक्ति 'पुरुहन्मा' बनता है। यही अगले सूक्त का ऋषि है -
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