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अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 86/ मन्त्र 1
ब्रह्म॑णा ते ब्रह्म॒युजा॑ युनज्मि॒ हरी॒ सखा॑या सध॒माद॑ आ॒शू। स्थि॒रं रथं॑ सु॒खमि॑न्द्राधि॒तिष्ठ॑न्प्रजा॒नन्वि॒द्वाँ उप॑ याहि॒ सोम॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठब्रह्म॑णा । ते॒ । ब्र॒ह्म॒ऽयुजा॑ । यु॒न॒ज्मि॒ । हरी॒ इति॑ । सखा॑या । स॒ध॒ऽमादे॑ । आ॒शू इति॑ ॥ स्थि॒रम् । रथ॑म् । सु॒ऽखम् । इ॒न्द्र॒ । अ॒धि॒ऽतिष्ठ॑न् । प्र॒ऽजा॒नन् । वि॒द्वान् । उप॑ । या॒हि॒ । सोम॑म् ॥८६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
ब्रह्मणा ते ब्रह्मयुजा युनज्मि हरी सखाया सधमाद आशू। स्थिरं रथं सुखमिन्द्राधितिष्ठन्प्रजानन्विद्वाँ उप याहि सोमम् ॥
स्वर रहित पद पाठब्रह्मणा । ते । ब्रह्मऽयुजा । युनज्मि । हरी इति । सखाया । सधऽमादे । आशू इति ॥ स्थिरम् । रथम् । सुऽखम् । इन्द्र । अधिऽतिष्ठन् । प्रऽजानन् । विद्वान् । उप । याहि । सोमम् ॥८६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 86; मन्त्र » 1
विषय - जीवन-संग्राम में विजय व ब्रह्म-प्राप्ति
पदार्थ -
१. (ब्रह्मयुजा) = ब्रह्म से इस शरीर-रथ में युक्त किये गये हे प्रभो! (ते हरी) = आपके इन इन्द्रियाश्वों को (ब्राह्मणा) = ज्ञान से (युनज्मि) = युक्त करता हूँ। ये इन्द्रियाश्व ही सखाया मेरे मित्र हैं और (सधमादे) = इस जीवन-संग्राम में (आशु) = व्याप्त होनेवाले हैं। इनके द्वारा ही मैंने जीवन संग्राम को लड़ना है और विजय पाकर आपके साथ आनन्द का अनुभव करना है। 'सधमाद' शब्द का अर्थ संग्राम भी है-वहाँ वीर सैनिक एकत्र होकर हर्ष का अनुभव करते हैं और अन्तत: मोक्षलोक भी 'सधमाद' है, इसमें आत्मा परमात्मा के साथ आनन्द का अनुभव करता है। ३. हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष! तु (स्थिरम्) = इस स्थिर-दृढ़ अंगोंवाले (सुखम्) = उत्तम इन्द्रियाश्वोंवाले [सु+ख] (रथम् अधितिष्ठन्) = शरीर-रथ पर स्थित होता हुआ, (प्रजानन्) = संसार के स्वरूप को ठीक से समझता हुआ, (विद्वान्) = उस आत्मतत्त्व का ज्ञान प्राप्त करनेवाला तू (सोमम् उपयाहि) = शान्त प्रभु को समीपता से प्राप्त होनेवाला है।
भावार्थ - इन्द्रियाश्वों को शरीर-रथ में ठीक से जोतकर, जीवन-संग्राम में विजय करते हुए हम ज्ञानी बनकर प्रभु को प्रास हों। वह जीवन-संग्राम में विजय प्राप्त करनेवाला व्यक्ति 'वसिष्ठ' बनता है और कहता है -
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