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अथर्ववेद > काण्ड 20 > सूक्त 87

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  • अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 87/ मन्त्र 1
    सूक्त - वसिष्ठः देवता - इन्द्रः छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - सूक्त-८७

    अध्व॑र्यवोऽरु॒णं दु॒ग्धमं॒शुं जु॒होत॑न वृष॒भाय॑ क्षिती॒नाम्। गौ॒राद्वेदी॑याँ अव॒पान॒मिन्द्रो॑ वि॒श्वाहेद्या॑ति सु॒तसो॑ममि॒च्छन् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अध्व॑र्यव: । अ॒रु॒णम् । दु॒ग्धम् । अं॒शुम् । जु॒होत॑न । वृ॒ष॒भाय॑ । क्षि॒ती॒नाम् ॥ गौ॒रात् । वेदी॑यान् । अ॒वऽपान॑म् । इन्द्र॑: । वि॒श्वाहा॑ । इत् । या॒ति॒ । सु॒तऽसो॑मम् । इ॒च्छन् ॥८७.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अध्वर्यवोऽरुणं दुग्धमंशुं जुहोतन वृषभाय क्षितीनाम्। गौराद्वेदीयाँ अवपानमिन्द्रो विश्वाहेद्याति सुतसोममिच्छन् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अध्वर्यव: । अरुणम् । दुग्धम् । अंशुम् । जुहोतन । वृषभाय । क्षितीनाम् ॥ गौरात् । वेदीयान् । अवऽपानम् । इन्द्र: । विश्वाहा । इत् । याति । सुतऽसोमम् । इच्छन् ॥८७.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 87; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    १. हे (अध्वर्यव:) = यज्ञशील पुरुषो। (क्षितीनाम्) = मनुष्यों पर (वृषभाय) = सुखों का सेचन करनेवाले प्रभु के लिए प्रभु की प्राप्ति के लिए इस (अरुणम्) = तेजस्वी (दुग्धम्) = ओषधियों से छोड़े गये भोजन के रूप में सेवित ओषधियों से प्राप्त कराये गये (अंशम्) = सोम को (जुहोतन) = अपने जीवन में आहुत करो। इस सोम को अपने अन्दर ही सुरक्षित करने का प्रयत्न करो। २. (गौरात्) = [Pure] पवित्र जीवनवाले पुरुष से (अवपानम्) = शरीर के अन्दर ही सोम के पान को (वेदीयान्) = अतिशयेन प्राप्त करनेवाला (इन्द्रः) = वह परमैश्वर्यशाली प्रभु (सुतसोमम् इच्छन्) = सुतसोम पुरुष को चाहता हुआ (विश्वाहा इत्) = सदा ही (याति) = प्राप्त होता है। पवित्र जीवनवाला व्यक्ति सोम को अपने अन्दर सुरक्षित करता है। इस सोमरक्षक को ही प्रभु प्राप्त होते हैं।

    भावार्थ - हे यज्ञशील पुरुषो। प्रभु-प्राप्ति के लिए सोम का रक्षण करो। सोमरक्षक पुरुष को ही प्रभु प्राप्त होते हैं।

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