अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 87/ मन्त्र 3
ज॑ज्ञा॒नः सोमं॒ सह॑से पपाथ॒ प्र ते॑ मा॒ता म॑हि॒मान॑मुवाच। एन्द्र॑ पप्राथो॒र्वन्तरि॑क्षं यु॒धा दे॒वेभ्यो॒ वरि॑वश्चकर्थ ॥
स्वर सहित पद पाठज॒ज्ञा॒न: । सोम॑म् । सह॑से । प॒पा॒थ॒ । प्र । ते॒ । मा॒ता । म॒हि॒मान॑म् । उ॒वा॒च॒ ॥ आ । इ॒न्द्र॒ । प॒प्रा॒थ॒ । उ॒रु । अ॒न्तरि॑क्षम् । यु॒धा । दे॒वेभ्य॑: । वरि॑व: । च॒क॒र्थ॒ ॥८७.३॥
स्वर रहित मन्त्र
जज्ञानः सोमं सहसे पपाथ प्र ते माता महिमानमुवाच। एन्द्र पप्राथोर्वन्तरिक्षं युधा देवेभ्यो वरिवश्चकर्थ ॥
स्वर रहित पद पाठजज्ञान: । सोमम् । सहसे । पपाथ । प्र । ते । माता । महिमानम् । उवाच ॥ आ । इन्द्र । पप्राथ । उरु । अन्तरिक्षम् । युधा । देवेभ्य: । वरिव: । चकर्थ ॥८७.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 87; मन्त्र » 3
विषय - सोम-रक्षण-प्रभुमहिमा-दर्शन-ज्ञानधन-प्राप्ति
पदार्थ -
१. हे प्रभो! (जज्ञान:) = हमारे हृदयों में प्रादुर्भाव होते हुए आप (सहसे) = हमारे बल के लिए (सोमं पपाथ) = सोम का रक्षण करते हो। हृदय में प्रभु का प्रादुर्भाव होने पर, वासना का विनाश हो जाता है और इसप्रकार सोम का रक्षण सम्भव होता है। हे प्रभो। आपके हृदय में प्रादुर्भूत होने पर ही (माता) = यह वेदमाता (ते महिमानम्) = आपकी महिमा को (प्र-उवाच) = प्रकर्षेण प्रतिपादित करती है। हृदय के निर्मल होने पर वेदार्थ स्पष्ट होता है और हमें प्रभु की महिमा का ज्ञान होता है। २. हे (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! आप ही उस (अन्तरिक्षम्) = इस विशाल अन्तरिक्ष को (आपप्राथ) = अपने तेज से प्रपूरित करते हो। आप ही (युधा) = युद्ध के द्वारा (देवेभ्य:) = देवों के लिए (वरिवःचकर्थ) = धन देते हैं। युद्ध में विजय प्राप्त करके काम-क्रोध आदि शत्रुओं को जीतनेवाले ये देव वास्तविक ऐश्वर्य को-ज्ञानरूप धन को प्राप्त करते हैं।
भावार्थ - प्रभु सोम-रक्षण द्वारा हमें शक्ति देते हैं। प्रभु ही सम्पूर्ण अन्तरिक्ष को तेज से आपूरित करते हैं। अध्यात्म-संग्राम में विजयी बनाकर प्रभु ही हमें ज्ञानधन प्राप्त कराते हैं।
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