अथर्ववेद - काण्ड 20/ सूक्त 87/ मन्त्र 5
प्रेन्द्र॑स्य वोचं प्रथ॒मा कृ॒तानि॒ प्र नूत॑ना म॒घवा॒ या च॒कार॑। य॒देददे॑वी॒रस॑हिष्ट मा॒या अथा॑भव॒त्केव॑लः॒ सोमो॑ अस्य ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । इन्द्र॑स्य । वो॒च॒म् । प्र॒थ॒मा । कृ॒तानि॑ । प्र । नूत॑ना । म॒घऽवा॑ । या । च॒कार॑ ॥ य॒दा । इत् । अदे॑वी: । अस॑हिष्ट । मा॒या: । अथ॑ । अ॒भ॒व॒त् । केव॑ल: । सोम॑: । अ॒स्य॒ ॥८७.५॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रेन्द्रस्य वोचं प्रथमा कृतानि प्र नूतना मघवा या चकार। यदेददेवीरसहिष्ट माया अथाभवत्केवलः सोमो अस्य ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । इन्द्रस्य । वोचम् । प्रथमा । कृतानि । प्र । नूतना । मघऽवा । या । चकार ॥ यदा । इत् । अदेवी: । असहिष्ट । माया: । अथ । अभवत् । केवल: । सोम: । अस्य ॥८७.५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 20; सूक्त » 87; मन्त्र » 5
विषय - प्रभु-कीर्तन से आसुरी माया का पराभव
पदार्थ -
१. मैं (इन्द्रस्य) = बल के सब कर्मों को करनेवाले प्रभु के (प्रथमा) = अतिशयेन विस्तारवाले व मुख्य (कृतानि) = कर्मों का (प्रवोचम्) = प्रतिपादन करता हूँ। (या) = जिन (नूतना) = अतिशयेन स्तुत्य कर्मों को (मघवा) = यह ऐश्वर्यशाली प्रभु चकार करते हैं, उन कर्मों का मैं गायन करता हूँ। २. इस प्रभु-कीर्तन द्वारा (यदा इत्) = जब यह उपासक (अदेवी:) = आसुरी (माया:) = मायाओं को (असहिष्ट) = पराभूत करता है, (अथ) = तब वह (केवल:) = आनन्द में संचार करानेवाला (सोमः) = सोम (अस्य अभवत्) = इसका होता है। आसुरभावों को जीतकर यह सोम का रक्षण कर पाता है और सोम रक्षण से आनन्द को प्राप्त करता है।
भावार्थ - हम प्रभु के विशाल व प्रशस्त कर्मों का कीर्तन करें। यह कीर्तन हमें आसुरभावों से बचाएगा। आसुरभावों के विनाश से हम सोम का रक्षण कर पाएंगे। यह सोम-रक्षण हमारे उल्लास का कारण बनेगा।
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