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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 28

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 28/ मन्त्र 1
    सूक्त - ब्रह्मा देवता - यमिनी छन्दः - अतिशक्वरीगर्भा चतुष्पदातिजगती सूक्तम् - पशुपोषण सूक्त

    एकै॑कयै॒षा सृष्ट्या॒ सं ब॑भूव॒ यत्र॒ गा असृ॑जन्त भूत॒कृतो॑ वि॒श्वरू॑पाः। यत्र॑ वि॒जाय॑ते य॒मिन्य॑प॒र्तुः सा प॒शून्क्षि॑णाति रिफ॒ती रुश॑ती ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    एक॑ऽएकया । ए॒षा । सृष्ट्या॑ । सम् । ब॒भू॒व॒ । यत्र॑ । गा: । असृ॑जन्त । भू॒त॒ऽकृत॑: । वि॒श्वऽरू॑पा: । यत्र॑ । वि॒ऽजाय॑ते । य॒मिनी॑ । अ॒प॒ऽऋ॒तु: । सा । प॒शून् । क्षि॒णा॒ति॒ । रि॒फ॒ती । रुश॑ती॥२८.१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एकैकयैषा सृष्ट्या सं बभूव यत्र गा असृजन्त भूतकृतो विश्वरूपाः। यत्र विजायते यमिन्यपर्तुः सा पशून्क्षिणाति रिफती रुशती ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एकऽएकया । एषा । सृष्ट्या । सम् । बभूव । यत्र । गा: । असृजन्त । भूतऽकृत: । विश्वऽरूपा: । यत्र । विऽजायते । यमिनी । अपऽऋतु: । सा । पशून् । क्षिणाति । रिफती । रुशती॥२८.१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 28; मन्त्र » 1

    पदार्थ -

    २. (एषा) = यह ब्रह्मा से जानी जानेवाली वेदवाणी (एकैकया) = प्रत्येक (सष्टया) = सृष्टि के साथ (संबभूव) = सम्यक् प्रादुर्भूत होती है। सृष्टि के प्रारम्भ में इसका ज्ञान 'अग्नि, वायु, आदित्य व अङ्गिरा' के द्वारा ब्रह्मा में स्थापित किया जाता है। (यत्र) = जिस वेदवाणी में (भूतकृतः) = [भूत-Wall. being, welfare] शुभ, मङ्गल व स्वास्थ्य देनेवाली (गा:) = वाणियाँ (असृजन्त) = विसृष्ट होती हैं। ये वाणियाँ (विश्वरूपा:) = सब पदार्थों का निरूपण करनेवाली हैं, सब पदार्थों का ज्ञान देकर ही वस्तुतः ये हमारा मङ्गल करती हैं। २. (यत्र) = इन वेदवाणियों का स्वाध्याय करनेवाला व्यक्ति संयत बुद्धि को प्राप्त करता है, उस बुद्धि को जोकि मन का शासन करनेवाली होती है, नकि मन से शासित होती है। ३. वेदवाणियों के ज्ञान की वाणियों के अध्ययन के अभाव में जब वह बुद्धि (अपर्तुः) = [जायते]-ऋतु-क्रम-नियमित गति से रहित, उच्छखल-सी हो जाती है तब (सा) = वह (पशून्) = पशुओं को (क्षिणाति) = हिंसित करती है, मांसाहार ब शिकार की ओर झुकती है। मन से शासित होकर यह ठीक सोच ही नहीं पाती। यह (रिफती) = कड़वे शब्दों का उच्चारण [to utter a rough grunting sound] करती है और (रुशती) = औरों को तंग करती है [to tease]| ज्ञान की ओर झुकाव न होने पर मनुष्य शिकार [मांसाहार] में प्रवृत्त होता है, कड़वी वाणी बोलता है तथा औरों को तंग करने में स्वाद लेता है।

    भावार्थ -

    प्रभु सृष्टि के प्रारम्भ में वेद ज्ञान देते हैं। यह वेदवाणी सब पदार्थों का निरूपण करती हुई हमारा शुभ करती है। इसके अध्ययन से बुद्धि संयत बनती है, अन्यथा मनुष्य शिकार में, कड़वे शब्द बोलने में व औरों को तंग करने में लगा रहता है।

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