अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 29/ मन्त्र 4
सूक्त - उद्दालकः
देवता - शितिपाद् अविः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अवि सूक्त
पञ्चा॑पूपं शिति॒पाद॒मविं॑ लो॒केन॒ संमि॑तम्। प्र॑दा॒तोप॑ जीवति पितॄ॒णां लो॒केऽक्षि॑तम् ॥
स्वर सहित पद पाठपञ्च॑ऽअपूपम् । शि॒ति॒ऽपाद॑म् । अवि॑म् । लो॒केन॑ । सम्ऽमि॑तम् । प्र॒ऽदा॒ता । उप॑ । जी॒व॒ति॒ । पि॒तृ॒णाम् । लो॒के । अक्षि॑तम् ॥२९.४॥
स्वर रहित मन्त्र
पञ्चापूपं शितिपादमविं लोकेन संमितम्। प्रदातोप जीवति पितॄणां लोकेऽक्षितम् ॥
स्वर रहित पद पाठपञ्चऽअपूपम् । शितिऽपादम् । अविम् । लोकेन । सम्ऽमितम् । प्रऽदाता । उप । जीवति । पितृणाम् । लोके । अक्षितम् ॥२९.४॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 29; मन्त्र » 4
विषय - पितृणां लोके
पदार्थ -
१. (पञ्चापूपम्) = [पञ्च, अ, पूप-पूपी विशरणे] राष्ट्र के 'ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र और निषाद'-इन पाँचों का विशीर्ण न होने देनेवाले, अथवा 'पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण व मध्य' देश के इन पाँचों भागों में रहनेवाली प्रजा को विशीर्ण न होने देनेवाले (शितिपादम्) = शुद्ध गतिवाले, विषयों में (अनासक्त अविम्) = रक्षक राजा को लोकेन संमितम-लोगों के प्रतिनिधियों से राष्ट्रसभा में निर्धारित-मानपूर्वक निश्चित किये गये कर का प्रदाता-देनेवाला प्रजावर्ग पितृणाम्-रक्षक राजपुरुषों के लोके-लोक में, अर्थात् राजपुरुषों से सुरक्षित राष्ट्र में (अक्षितम्) = अक्षीणता के साथ (उपजीवति) = जीवन धारण करता है। २. राजा का मौलिक कर्तव्य एक ही है कि वह चारों दिशाओं और मध्यभाग में स्थित सब प्रजाओं का ठीक से रक्षण करे उन्हें विशीर्ण न होने दे। राजपुरुष पितरों के समान हों। ये प्रजावर्ग को सन्तान-तुल्य समझें। प्रजा का कर्तव्य है कि वह ठीक प्रकार से कर देनेवाली हो।
भावार्थ -
राजा प्रजा का रक्षण करे। राजपुरुष पितरों के समान हों। वे अपने सन्तानरूप प्रजाओं को क्षीण न होने दें।
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