अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 5/ मन्त्र 2
सूक्त - अथर्वा
देवता - सोमः, पर्णमणिः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - राजा ओर राजकृत सूक्त
मयि॑ क्ष॒त्रं प॑र्णमणे॒ मयि॑ धारयताद्र॒यिम्। अ॒हं रा॒ष्ट्रस्या॑भीव॒र्गे नि॒जो भू॑यासमुत्त॒मः ॥
स्वर सहित पद पाठमयि॑ । क्ष॒त्रम् । प॒र्ण॒ऽम॒णे॒ । मयि॑ । धा॒र॒य॒ता॒त् । र॒यिम् ।अ॒हम् । रा॒ष्ट्रस्य॑ । अ॒भि॒ऽव॒र्गे । नि॒ऽज: । भू॒या॒स॒म् । उ॒त्ऽत॒म: ॥५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
मयि क्षत्रं पर्णमणे मयि धारयताद्रयिम्। अहं राष्ट्रस्याभीवर्गे निजो भूयासमुत्तमः ॥
स्वर रहित पद पाठमयि । क्षत्रम् । पर्णऽमणे । मयि । धारयतात् । रयिम् ।अहम् । राष्ट्रस्य । अभिऽवर्गे । निऽज: । भूयासम् । उत्ऽतम: ॥५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 5; मन्त्र » 2
विषय - क्षत्रं रयिम् [धारयतात्]
पदार्थ -
१. हे (पर्णमणे) = पालक व पूरक सोम ! (मयि) = मुझमें (क्षत्रम्) = क्षतों के त्राण करनेवाले बल का (धारयतात्) = धारण कर । (मयि) = मुझमें (रयिम्) = ऐश्वर्य को [धारयतात्]धारण कर । सोम ही बल व धन का धारण करनेवाला है। २. हे सोम! तेरे द्वारा सबल बना हुआ (अहम्) = मैं (राष्ट्रस्य) = इस राष्ट्र के (अभीवर्गे) = आवर्जन व अपने अनुकूल करने में [स्वाधीनीकरणे] (निज:) = अपने-आप (उत्तम:) = उत्कृष्ट (भूयासम्) = होऊँ। इस शरीररूप राष्ट्र को अपने अधीन करके उत्तम जीवनवाला बनें।
भावार्थ -
शरीर में सुरक्षित सोम मुझमें बल व ऐश्वर्य का स्थापन करे। सोम-रक्षण द्वारा शरीर-राष्ट्र को स्वाधीन करता हुआ मैं उत्कृष्ट जीवनवाला बनूं।
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