अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 5/ मन्त्र 8
सूक्त - अथर्वा
देवता - सोमः, पर्णमणिः
छन्दः - विराडुरोबृहती
सूक्तम् - राजा ओर राजकृत सूक्त
प॒र्णोऽसि॑ तनू॒पानः॒ सयो॑निर्वी॒रो वी॒रेण॒ मया॑। सं॑वत्स॒रस्य॒ तेज॑सा॒ तेन॑ बध्नामि त्वा मणे ॥
स्वर सहित पद पाठप॒र्ण: । अ॒सि॒ । त॒नू॒ऽपान॑: । स॒ऽयो॑नि: । वी॒र: । वी॒रेण॑ । मया॑ । स॒म्ऽव॒त्स॒रस्य॑ । तेज॑सा । तेन॑ । ब॒ध्ना॒मि॒ । त्वा॒ । म॒णे॒ ॥५.८॥
स्वर रहित मन्त्र
पर्णोऽसि तनूपानः सयोनिर्वीरो वीरेण मया। संवत्सरस्य तेजसा तेन बध्नामि त्वा मणे ॥
स्वर रहित पद पाठपर्ण: । असि । तनूऽपान: । सऽयोनि: । वीर: । वीरेण । मया । सम्ऽवत्सरस्य । तेजसा । तेन । बध्नामि । त्वा । मणे ॥५.८॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 5; मन्त्र » 8
विषय - तनूपान पर्ण
पदार्थ -
१.हे सोम! (पर्ण: असि) = तू हमारा पालन व पूरण करनेवाला है, (तनूपान:) = शरीर का रक्षण करनेवाला है। (वीर:) = [वि ईर] रोगरूप शत्रुओं को कम्पित करके दूर करनेवाला है। (वीरण मया) = मुझ वीर के साथ (सयोनि:) = समान गृहवाला है। इस शरीर में मैं भी रहता हैं, तू भी। २. हे (मणे) = सोमशक्ते! (तेन) = उस (सवंत्सरस्य) = उत्तम निवास के साधनभूत (तेजसा) = तेज के हेतु से (त्वा बाध्रामि) = तुझे अपने अन्दर बांधता हूँ। तेरे रक्षण से शरीर में वह तेज प्राप्त होता है जो उत्तम निवास का साधन बनता है।
भावार्थ -
सोम शरीर का रक्षण करता है। यह शरीर में बद्ध होकर दीर्घ जीवन का कारण बनता है।
विशेष -
अगले सूक्त का ऋषि 'जगदीजं पुरुषः' कहलाता है। सक्त का विषय भी 'वानस्पत्यः अश्वत्थः' है। वानस्पतिक पदार्थों के सेवन से अत्यन्त सात्त्विक बुद्धिवाले पुरुषों के हृदयों में निवास करनेवाला 'अश्वत्थ' है -