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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 8
    ऋषिः - अथर्वा देवता - सोमः, पर्णमणिः छन्दः - विराडुरोबृहती सूक्तम् - राजा ओर राजकृत सूक्त
    70

    प॒र्णोऽसि॑ तनू॒पानः॒ सयो॑निर्वी॒रो वी॒रेण॒ मया॑। सं॑वत्स॒रस्य॒ तेज॑सा॒ तेन॑ बध्नामि त्वा मणे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    प॒र्ण: । अ॒सि॒ । त॒नू॒ऽपान॑: । स॒ऽयो॑नि: । वी॒र: । वी॒रेण॑ । मया॑ । स॒म्ऽव॒त्स॒रस्य॑ । तेज॑सा । तेन॑ । ब॒ध्ना॒मि॒ । त्वा॒ । म॒णे॒ ॥५.८॥


    स्वर रहित मन्त्र

    पर्णोऽसि तनूपानः सयोनिर्वीरो वीरेण मया। संवत्सरस्य तेजसा तेन बध्नामि त्वा मणे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    पर्ण: । असि । तनूऽपान: । सऽयोनि: । वीर: । वीरेण । मया । सम्ऽवत्सरस्य । तेजसा । तेन । बध्नामि । त्वा । मणे ॥५.८॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 5; मन्त्र » 8
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    तेज, बल, आयु, धनादि बढ़ाने का उपदेश।

    पदार्थ

    (मणे) हे प्रशंसनीय परमेश्वर ! तू (पर्णः) हमारा पूर्ण करनेवाला, (तनूपानः) शरीररक्षक और (वीरेण मया) मुझ वीर के साथ (सयोनिः) मिलने योग्य घर में रहनेवाला (वीरः) वीर (असि) है। (संवत्सरस्य) सबमें यथानियम वास करनेवाले [तेरे] (तेन तेजसा) उस तेज से (त्वा) तुझको (बध्नामि) मैं बाँधता हूँ ॥८॥

    भावार्थ

    मनुष्य उस उत्तम कामनाओं के पूरक और शरीररक्षक महापराक्रमी परमेश्वर को अपने साथ सब स्थानों में निवास करता हुआ जानकर और उसके तेजोमय स्वरूप को हृदय में धारण करके पराक्रमी और तेजस्वी होकर आनन्द भोगे ॥८॥ ईश्वर का जीव के साथ नित्य सम्बन्ध है, जैसे−द्वा सु॑प॒र्णा स॒युजा॒ सखा॑या समा॒नं वृ॒क्षं परि॑षस्वजाते। तयो॑र॒न्यः पिप्प॑लं स्वा॒द्वत्त्यन॑श्नन्न॒न्यो अ॒भिचा॑कशीति ॥ ऋ०१।१६४।२०, अ० ९।९।२० ॥ (द्वा) दो (सुपर्णा) सुन्दर पालनशक्तिवाले, (सयुजा) समान सम्बन्ध रखनेवाले, (सखाया) मित्रों के समान वर्तमान [ईश्वर और जीव] (समानम्) एक (वृक्षम्) सेवनीय [संसार वा वृक्ष] से (परि) सब प्रकार (सस्वजाते) सम्बन्ध रखते हैं। (तयोः) उन दोनों में (अन्यः) एक [जीव, ईश्वराधीन होने से] (स्वादु) चखने योग्य (पिप्पलम्) फल [पुण्य-पाप का] (अत्ति) खाता है (अन्यः) दूसरा [परमात्मा] (अनश्नन्) न खाता हुआ (अभि) भले प्रकार [जीवों को] (चाकशीति) देखता है ॥

    टिप्पणी

    ८−(पर्णः)। पूरकः। पालकः। (असि)। भवसि। (तनूपानः)। शरीररक्षकः। (सयोनिः)। वहिश्रिश्रुयुद्रु०। उ० ४।५१। इति यु मिश्रणामिश्रणयोः-नि। युतं सम्पृक्तं सर्वपदार्थैः। योनिः, गृहनाम-निघ० ३।४। समानगृहयुक्तः। (वीरः)। स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। इति अज गतिक्षेपणयोः-रक्। अजेर्वीभावः। यद्वा। वीर विक्रान्तौ-पचाद्यच्। यद्वा। वि+ईर गतौ-क। वीरो वीरयत्यमित्रान् वेतेर्वा स्याद् गतिकर्मणो वीरयतेर्वा-निरु० १।७। शूरः। (वीरेण)। पराक्रमिणा। (मया)। उपासकेन। (संवत्सरस्य)। अ० १।३५।४। संपूर्वाच्चित्। उ० ३।७२। इति सम्+वस निवासे-सरन्। स च चित्। सम्यग्वसन्ति लोका यत्र, निवसति लोकेषु यः। सम्यग्निवासस्थानस्य परमेश्वरस्य। (तेजसा)। प्रकाशेन। (तेन)। प्रसिद्धेन। (बध्नामि)। धारयामि। त्वदीयतेजोऽवाप्तये स्वहृदये स्थापयामीत्यर्थः ॥

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    विषय

    तनूपान पर्ण

    पदार्थ

    १.हे सोम! (पर्ण: असि) = तू हमारा पालन व पूरण करनेवाला है, (तनूपान:) = शरीर का रक्षण करनेवाला है। (वीर:) = [वि ईर] रोगरूप शत्रुओं को कम्पित करके दूर करनेवाला है। (वीरण मया) = मुझ वीर के साथ (सयोनि:) = समान गृहवाला है। इस शरीर में मैं भी रहता हैं, तू भी। २. हे (मणे) = सोमशक्ते! (तेन) = उस (सवंत्सरस्य) = उत्तम निवास के साधनभूत (तेजसा) = तेज के हेतु से (त्वा बाध्रामि) = तुझे अपने अन्दर बांधता हूँ। तेरे रक्षण से शरीर में वह तेज प्राप्त होता है जो उत्तम निवास का साधन बनता है।

    भावार्थ

    सोम शरीर का रक्षण करता है। यह शरीर में बद्ध होकर दीर्घ जीवन का कारण बनता है।

    विशेष

    अगले सूक्त का ऋषि 'जगदीजं पुरुषः' कहलाता है। सक्त का विषय भी 'वानस्पत्यः अश्वत्थः' है। वानस्पतिक पदार्थों के सेवन से अत्यन्त सात्त्विक बुद्धिवाले पुरुषों के हृदयों में निवास करनेवाला 'अश्वत्थ' है -

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    भाषार्थ

    (मणे) हे रत्न ! [सेनापति !] (पर्णः असि) तू पालक है, (तनुपान:) साम्राज्य शरीर का पालक है, (सयोनिः) हम दोनों की समान-योनि है, प्रजा; (बीरः) तू वीर है। (संवत्सरस्व) संवत्सर के तेजोमय आदित्य१ के (तेन तेजसा) उस तेज से युक्त (त्वा) तुझे (बध्नामि) मैं अपने साथ बांधता हूँ, सुदृढ़ सम्बद्ध करता हूँ।

    टिप्पणी

    [तनूपान:=साम्राज्य-शरीर तथा सम्राट् का निज-शरीर। पालक सेनापति दोनों शरीरों की रक्षा करता है। साम्राज्य भी शरीर है, यथा "यजु० २०।५।९; तथा विशेषतया मन्त्र ८।" सयोनी= योनिः, प्रजा। अथवा सम्राट् और सेनापति की समान योनि [घर] (निघं० ३।४), है "भूमण्डल।" दोनों वीर हैं "वीरो, बीरेन मया।" बध्नामि=बन्धन केवल धागे आदि द्वारा ही नहीं होता। "देशबन्धः चित्तस्य धारणा" (योग ३।१) में नासिकाग्र आदि में चित्त को बांधने का भी कथन हुआ है। धारणा योगाङ्ग है। इसी प्रकार मन्त्र में "बध्नामि" का अर्थ भी यथोचित हो करना चाहिए।] [१. संवत्सरस्य तेजसा=संवत्सरस्य, एतदुपलक्षितकालभेदनियामकस्य आदित्यस्य तेजसा युक्तं त्वाम् (सायण)।]

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    विषय

    ‘पर्णमणि’ के रूप में प्रधान पुरुषों का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे (पर्ण) पालक ! तू (तनूपानः) हमारे शरीर की रक्षा करने हारा होने के कारण ही (पर्णः) पर्ण=पालक (असि) है । (मया) मुझ (वीरेण) वीर पुरुष के साथ तू भी (वीरः) वीर (असि) है। हे (मणे) मननशील, राष्ट्र-स्तंभनशील ! हे शोभाप्रद ! (तेन) उस (तेजसा) तेज, बल के कारण ही (त्वा) तुझ को (संवत्सरस्य) एक वर्ष के लिये (बध्नामि) उचित कार्य में नियुक्त करता हूं । इति प्रथमोऽनुवाकः ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः । सोमो देवता । पुरोनुष्टुप् । त्रिष्टुप् । विराड् उरोबृहती । २-७ अनुष्टुभः । अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Makers of Men and Rashtra

    Meaning

    O divine jewel of life, you are parna, giver of fullness and perfection, protector of the body form in good health, potent brave, original brother with me, your brave companion. O jewel, O Soma of life, by virtue of that refulgence of universal all time nature I bind you and me together in the essence. (For the similarity of essence between the human and the Divine Spirit, reference may be made to Rgveda, 1, 164, 20.)

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    Translation

    O capsule containing the Parņa drug, you are protector of body, brave and kin to me, (you are) also a brave since birth with the brilliance of the year, thereby I accept you as a drug to be taken orally, i.e., to be swallowed, as a physician I prescribe it to patients (i.e. badhnāmi).

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    Translation

    This Parnamanrih is a leaf, it is the guard of my body, it is an effective one with me who is intrepid himself, I bind this with the splendor available throughout the year.

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    Translation

    O Praise worthy God, Thou art our Nourishes and Protector of our bodies. Thou, a Hero, are coeval with me, the heroic soul. With that splendor of God, I bind myself to Thee.

    Footnote

    A man should consider his soul eternal and co-existence with God. He should alwaysremember Him in his heart, and maintain his connection with Him, so that he may enjoy happiness. संवत्सर means God. सम्यग्वसन्ति लोका यत्र in whom reside all worlds: निबसति लोकेषु यःwho resides in all the worlds.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ८−(पर्णः)। पूरकः। पालकः। (असि)। भवसि। (तनूपानः)। शरीररक्षकः। (सयोनिः)। वहिश्रिश्रुयुद्रु०। उ० ४।५१। इति यु मिश्रणामिश्रणयोः-नि। युतं सम्पृक्तं सर्वपदार्थैः। योनिः, गृहनाम-निघ० ३।४। समानगृहयुक्तः। (वीरः)। स्फायितञ्चिवञ्चि०। उ० २।१३। इति अज गतिक्षेपणयोः-रक्। अजेर्वीभावः। यद्वा। वीर विक्रान्तौ-पचाद्यच्। यद्वा। वि+ईर गतौ-क। वीरो वीरयत्यमित्रान् वेतेर्वा स्याद् गतिकर्मणो वीरयतेर्वा-निरु० १।७। शूरः। (वीरेण)। पराक्रमिणा। (मया)। उपासकेन। (संवत्सरस्य)। अ० १।३५।४। संपूर्वाच्चित्। उ० ३।७२। इति सम्+वस निवासे-सरन्। स च चित्। सम्यग्वसन्ति लोका यत्र, निवसति लोकेषु यः। सम्यग्निवासस्थानस्य परमेश्वरस्य। (तेजसा)। प्रकाशेन। (तेन)। प्रसिद्धेन। (बध्नामि)। धारयामि। त्वदीयतेजोऽवाप्तये स्वहृदये स्थापयामीत्यर्थः ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (মণে) হে রত্ন! [সেনাপতি!] (পর্ণঃ অসি) তুমি পালক, (তনূপানঃ) সাম্রাজ্য শরীরের পালক, (সযোনিঃ) আমাদের দুজনের সমান-যোনি, প্রজা; (ময়া বীরেণ) আমার বীরের দ্বারা (বীরঃ) তুমি বীর। (সংবৎসরস্য) সংবৎসরের তেজোময় আদিত্যের১ (তেন তেজসা) সেই তেজ যুক্ত (ত্বা) তোমাকে (বধ্নামি) আমি নিজের সাথে যুক্ত করি, সুদৃঢ় সম্বদ্ধযুক্ত করি।

    टिप्पणी

    [তনুপানঃ= সাম্রাজ্য-শরীর এবং সম্রাটের নিজ-শরীর। পালক-সেনাপতি দুজনে শরীরের রক্ষা করে। সাম্রাজ্যও শরীর, যথা “যজুঃ০ ২০।৫।৯; এবং বিশেষকরে মন্ত্র ৮ '" সযোনি=যোনিঃ, প্রজা। অথবা সম্রাট্ এবং সেনাপতির সমান যোনি [ঘর] (নিঘং০ ৩।৪), হলো "ভূমণ্ডল।" দু'জনেই বীর “বীরো, বীরেণ ময়া।" বধ্নামি= বন্ধন কেবল সুতো দ্বারাই হয় না। “দেশবন্ধঃ চিত্তস্য ধারণা" (যোগ ৩।১) এ নাসিকাগ্র আদিতে চিত্তকে বাঁধারও কথন হয়েছে। ধারণা হলো যোগাঙ্গ। এইভাবে মন্ত্রে "বধ্নামি" এর অর্থও যথোচিত করা উচিত।]

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    मन्त्र विषय

    তেজোবলায়ুর্ধনাদিপুষ্ট্যুপদেশঃ

    भाषार्थ

    (মণে) হে প্রশংসনীয় পরমেশ্বর ! তুমি (পর্ণঃ) আমাদের পূর্ণকারী, (তনূপানঃ) শরীররক্ষক এবং (বীরেণ ময়া) বীর আমার সাথে (সযোনিঃ) সাক্ষাৎকার-এর যোগ্য ঘরে অবস্থানকারী (বীরঃ) বীর (অসি) হও। (সংবৎসরস্য) সকলের মধ্যে যথানিয়মে অবস্থানকারী [তোমার] (তেন তেজসা) সেই তেজ দ্বারা (ত্বা) তোমাকে (বধ্নামি) আমি বন্ধন/ধারণ/স্থাপন করি ॥৮॥

    भावार्थ

    মনুষ্য সেই উত্তম কামনার পূরক এবং শরীররক্ষক মহাপরাক্রমশালী পরমেশ্বরকে নিজের সাথে সমস্ত স্থানে নিবাসী/বর্তমান জেনে এবং উনার তেজময় স্বরূপ হৃদয়ে ধারণ করে পরাক্রমশালী এবং তেজস্বী হয়ে আনন্দ ভোগ করুক ॥৮॥ ঈশ্বরের জীবের সাথে নিত্য সম্বন্ধ রয়েছে যেমন- দ্বা সুপর্ণা সয়ুজা সখায়া সমানং বৃক্ষং পরিষস্বজাতে। তয়োরন্যঃ পিপ্পলং স্বাদ্বত্ত্যনশ্নন্নন্যো অভিচাকশীতি ॥ ঋ০ ১।১৬৪।২০, অ০ ৯।৯।২০ ॥ (দ্বা) দুই (সুপর্ণা) সুন্দর পালনশক্তিসম্পন্ন, (সয়ুজা) সমান সম্পর্ক রক্ষাকারী, (সখায়া) মিত্রের সমান বর্তমান [ঈশ্বর ও জীব] (সমানম্) এক (বৃক্ষম্) সেবনীয় [সংসার বা বৃক্ষ] এর সাথে (পরি) সমস্ত প্রকারের (সস্বজাতে) সম্পর্ক রাখে। (তয়োঃ) সেই দুইয়ের মধ্যে (অন্যঃ) একটি [জীব, ঈশ্বরাধীন হওয়ায়] (স্বাদু) স্বাদের যোগ্য (পিপ্পলম্) ফল [পুণ্য-পাপ এর] (অত্তি) ভক্ষণ করে (অন্যঃ) অপরটি [পরমাত্মা] (অনশ্নন্) না খেয়ে (অভি) ভালোকরে [জীবকে] (চাকশীতি) দেখে/পর্যবেক্ষণ/নিরীক্ষণ করে॥

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