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अथर्ववेद के काण्ड - 3 के सूक्त 5 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 5/ मन्त्र 6
    ऋषिः - अथर्वा देवता - सोमः, पर्णमणिः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - राजा ओर राजकृत सूक्त
    70

    ये धीवा॑नो रथका॒राः क॒र्मारा॒ ये म॑नी॒षिणः॑। उ॑प॒स्तीन्प॑र्ण॒ मह्यं॑ त्वं॒ सर्वा॑न्कृण्व॒भितो॒ जना॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । धीवा॑न: । र॒थ॒ऽका॒रा: । क॒र्मारा॑: । ये । म॒नी॒षिण॑: । उ॒प॒ऽस्तीन् । प॒र्ण॒ । मह्य॑म् । त्वम् । सर्वा॑न् । कृ॒णु॒ । अ॒भित॑: । जना॑न् ॥५.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये धीवानो रथकाराः कर्मारा ये मनीषिणः। उपस्तीन्पर्ण मह्यं त्वं सर्वान्कृण्वभितो जनान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये । धीवान: । रथऽकारा: । कर्मारा: । ये । मनीषिण: । उपऽस्तीन् । पर्ण । मह्यम् । त्वम् । सर्वान् । कृणु । अभित: । जनान् ॥५.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 5; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    तेज, बल, आयु, धनादि बढ़ाने का उपदेश।

    पदार्थ

    (ये) जो (धीवानः) तीक्ष्ण बुद्धिवाले (रथकाराः) रथों के बनानेवाले और (ये) जो (मनीषिणः) बड़े पण्डित (कर्माराः) कर्मों में गति रखनेवाले शिल्पीजन हैं। (पर्ण) हे पालन करनेवाले परमेश्वर ! (त्वम्) तू (मह्यम्) मेरेलिये (सर्वान्) उन सब (जनान्) जनों को (अभितः) चारों ओर से (उपस्तीन्) समीपवर्ती (कृणु) कर ॥६॥

    भावार्थ

    सब मनुष्यों और विशेषकर राजा लोगों को चाहिये कि भूमिरथ, आकाशरथ, जलरथ आदि के बनानेवाले और अन्य शिल्पकर्मी, विश्वकर्मा चतुर विद्वानों का सत्कार करते रहें, जिससे अनेक व्यापारों से संसार में उन्नति होवे ॥६॥

    टिप्पणी

    ६−(ये)। प्रसिद्धाः। (धीवानः)। ध्याप्योः सम्प्रसारणं च। उ० ४।११५। इति ध्यै चिन्तने-क्वनिप्। ध्यानशीलाः। पण्डिताः। (रथकाराः)। कर्मण्यण्। पा० ३।२।१। इति रथ+कृञ्-अण् विमानादिनिर्मातारः। (कर्माराः)। कर्म+ऋ गतौ-अण् पूर्ववत्। कर्माणि ऋच्छन्ति गच्छन्ति प्राप्नुवन्तीति। विश्वकर्माणः। कर्मकाराः। अस्त्रशस्त्रकारिणः। (मनीषिणः) कॄतॄभ्यामीषन्। उ० ४।२६। इति मनु अवबोधने-ईषन्। टाप्। मनीषा प्रज्ञाऽस्यास्ति व्रीह्यादित्वाद् इनि। यद्वा। ईष गतौ-अ, टाप्। शकन्ध्वादिषु पररूपं वाच्यम्। वार्त्तिकम्। पा० १।१।६४। इति पररूपम्। मनस् ईषा मनस ईषा मनीषा मनोगतिर्बुद्धिः। पूर्ववद्-इनि। मेधाविनः पुरुषाः-निघ० ३।१५। पण्डिताः। (उपस्तीन्)। उप+अस सत्तायाम्, यद्वा, आस उपवेशने-क्तिच्। आदिलोपश्छान्दसः। समीपे विद्यमानान्। उपासीनान्। (पर्ण)। म० १। हे पालक, पूरक। (मह्यम्)। मदर्थम्। (सर्वान्)। अखिलान्। (कृणु)। कुरु। (अभितः)। सर्वतः। (जनान्)। लोकान् ॥

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    विषय

    'रथकार धीवान्' तथा 'कार मनीषी'

    पदार्थ

    १. हे (पर्ण) = पालन व पूरण करनेवाले मणे! (त्वम्) = तू (मह्यम्) = मेरे लिए (सर्वान् जनान्) = सब मनुष्यों को (अभितः) = सब ओर (उपस्तीन) = उपासक [सेवक] के रूप में (कृणु) = कर। सोम-रक्षण करता हुआ मैं इन सब लोगों का प्रिय बन, २. (ये) = जो (धीवान:) = प्रशस्त बुद्धिवाले व (रथकारा:) = शरीररूप रथ को सुन्दर बनानेवाले हैं, (ये) = जो (कारा:) = खूब क्रियाशील (मनीषिणः) = मन का शासन करनेवाले ज्ञानी हैं। ये सबके सब मेरे उपासक हों-मैं इनका प्रिय बनें। सोम-रक्षण मुझे उत्तम बुद्धिवाला व सुन्दर शरीर-रथवाला बनाये। इसके रक्षण से मैं क्रियाशील व मनीषी बनें, अन्य बुद्धिमानों व मनीषियों में आगे बढ़ जाऊँ।

    भावार्थ

    सोमरक्षण मुझे उत्तम शरीरवाले व बुद्धिमान् पुरुषों में श्रेष्ठ बनाए। इसके द्वारा मैं क्रियाशील ज्ञानी बन जाऊँ।

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    भाषार्थ

    (ये) जो (धीवानः) बद्धिमान (रथकारा:) रथों के निर्माता है (ये) जो (मनीषिणः) मननशील (कर्मारा:) लोहे कर्मोवाले हैं। (पर्ण) हे पालक सेनापति ! (त्वम्) तू तथा (सर्वान् जनान्) अन्य सब जनों को (मह्यम्) मुझ भूमण्डल राम्राट् के लिये (अभितः) मेरे अभिमुख (उपस्तीन्) मेरे समीप होनेवाले, या बैठनेवाले (कृणु) कर

    टिप्पणी

    [कर्मारा:=अयस्कारप्रभृतयः (सायण)। कर्म+आर [ores], खनिज-ores में काम करनेवाले, कच्ची धातु में काम करनेवाले। उपस्तीन्=उप + अस् भुवि या आस उपवेशने (सायण)। भूमण्डल का सम्राट सेनापति से कहता है कि रथकार आदि को मेरे समीप होने या बैठने के लिये प्रोत्साहित कर, प्रेरित कर, उन्हें मेरे समीप आने या आकर बैठने में निषेध न कर।]

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    विषय

    ‘पर्णमणि’ के रूप में प्रधान पुरुषों का वर्णन ।

    भावार्थ

    हे (पर्ण) राष्ट्र के पालक मन्त्रिन् ! (त्वं) तू (मह्यं) मुझ राजा के लिये इस राष्ट्र में निवास करने हारे (ये) जो (धीवानः) बुद्धिमान्, कलाकौशल में चतुर (रथकाराः) शीघ्र गमन करने वाले, रथों के बनाने वाले शिल्पी (कर्माराः) लोहे, सुवर्ण आदि धातु के कारीगर और (ये) जो (मनीषिणः) मननशील, अध्यात्मवेदी विद्वान् हैं उन सब (जनान्) पुरुषों को मेरे (अभितः) चारों ओर (उपस्तीन्) उपस्थित (कृणुहि) कर । वह मन्त्री ऐसा प्रबन्ध करे जिससे सब शिल्पी और विद्वान्गण राष्ट्र के लिये नियुक्त होकर राजकार्य में सहायक हों, सरकार की तरफ से कारखानों, गाड़ियों और विद्यालयों का प्रबन्ध हो ।

    टिप्पणी

    (प्र०) ‘यत् तक्षाणो रथ’ (तृ० च०) सर्वोस्स्वानृण [ १ ] रन्धयोपस्तिं कृणु मेदिनम्’ इति पैप्प० सं०।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अथर्वा ऋषिः । सोमो देवता । पुरोनुष्टुप् । त्रिष्टुप् । विराड् उरोबृहती । २-७ अनुष्टुभः । अष्टर्चं सूक्तम् ॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    The Makers of Men and Rashtra

    Meaning

    O Soma jewel of life divine, inspire me that all those people who are expert chariot makers, metallurgists, eminent intellectuals and distinguished sages of vision and wisdom be around close to me for state business of governance and administration.

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    Translation

    Whosoare skilled chariot makers, and whosoare gifted smiths, O Parna tablet , may you gather all of them around me willing to serve.

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    Translation

    Let this Parnamanih make me strong to have in my side all those men who are the skilled builders of the chariots or cars, who are the artisans and the men of special dexterity.

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    Translation

    Sagacious builders of the war chariots, and skillful artisans and mechanics, O Minister, the guardian of the state, make all these men in my statecome round near me!

    Footnote

    He refers to the King. It is the duty of a king to encourage intelligent, learned, skillful mechanics and artisans who can build aeroplanes, ships, motor cars and othermilitary vehicles.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ६−(ये)। प्रसिद्धाः। (धीवानः)। ध्याप्योः सम्प्रसारणं च। उ० ४।११५। इति ध्यै चिन्तने-क्वनिप्। ध्यानशीलाः। पण्डिताः। (रथकाराः)। कर्मण्यण्। पा० ३।२।१। इति रथ+कृञ्-अण् विमानादिनिर्मातारः। (कर्माराः)। कर्म+ऋ गतौ-अण् पूर्ववत्। कर्माणि ऋच्छन्ति गच्छन्ति प्राप्नुवन्तीति। विश्वकर्माणः। कर्मकाराः। अस्त्रशस्त्रकारिणः। (मनीषिणः) कॄतॄभ्यामीषन्। उ० ४।२६। इति मनु अवबोधने-ईषन्। टाप्। मनीषा प्रज्ञाऽस्यास्ति व्रीह्यादित्वाद् इनि। यद्वा। ईष गतौ-अ, टाप्। शकन्ध्वादिषु पररूपं वाच्यम्। वार्त्तिकम्। पा० १।१।६४। इति पररूपम्। मनस् ईषा मनस ईषा मनीषा मनोगतिर्बुद्धिः। पूर्ववद्-इनि। मेधाविनः पुरुषाः-निघ० ३।१५। पण्डिताः। (उपस्तीन्)। उप+अस सत्तायाम्, यद्वा, आस उपवेशने-क्तिच्। आदिलोपश्छान्दसः। समीपे विद्यमानान्। उपासीनान्। (पर्ण)। म० १। हे पालक, पूरक। (मह्यम्)। मदर्थम्। (सर्वान्)। अखिलान्। (कृणु)। कुरु। (अभितः)। सर्वतः। (जनान्)। लोकान् ॥

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    बंगाली (2)

    भाषार्थ

    (যে) যে/যিনি (ধীবানঃ) বুদ্ধিমান্ (রথকারাঃ) রথের নির্মাতা (যে) যে/যিনি (মনীষিণঃ) মননশীল (কর্মারাঃ) লোহার কর্ম করে/কর্মকার। (পর্ণ) হে পালক সেনাপতি! (ত্বম্) তুমি এবং (সর্বান্ জনান্) অন্য সকলকে (মহ্যম্) [আমার] ভূমণ্ডল সম্রাটের জন্য (অভিতঃ) আমার অভিমুখে (উপস্তীন্) আমার সন্নিকটস্থ, বা অবস্থানকারী (কৃণু) করো।

    टिप्पणी

    [কর্মারাঃ=অয়স্কারপ্রভৃতয়ঃ (সায়ণ)। কর্ম+আর [ores], খনিজ-ores এ কার্যকর্তা, কাঁচা ধাতুর কার্যকর্তা। উপস্তীন্= উপ+অস্ ভুবি বা আস উপবেশনে (সায়ণ)। ভূমণ্ডলের সম্রাট্ সেনাপতিকে বলে যে, রথকার/রথ-নির্মাতা আদিকে আমার সন্নিকটস্থ হওয়ার বা বসার জন্য প্রোৎসাহিত করো, প্রেরিত করো, তাঁদের আমার কাছে আসার বা এসে বসার ক্ষেত্রে নিষেধ করো না]

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    मन्त्र विषय

    তেজোবলায়ুর্ধনাদিপুষ্ট্যুপদেশঃ

    भाषार्थ

    (যে) যে (ধীবানঃ) তীক্ষ্ণ বুদ্ধিসম্পন্ন (রথকারাঃ) রথ নির্মাতা এবং (যে) যে (মনীষিণঃ) মেধাবী পণ্ডিত (কর্মারাঃ) কর্মকারী শিল্পীরা রয়েছে। (পর্ণ) হে পালনকর্তা পরমেশ্বর ! (ত্বম্) তুমি (মহ্যম্) আমার জন্য (সর্বান্) সেই সব (জনান্) লোকেদের (অভিতঃ) চারিদিক থেকে (উপস্তীন্) নিকটবর্তী (কৃণু) করো ॥৬॥

    भावार्थ

    সকল মনুষ্য এবং বিশেষ করে রাজাদের উচিত, ভূমিরথ, আকাশরথ, জলরথাদির প্রস্তুতকারী/নির্মাতা এবং অন্য শিল্পকর্মী, বিশ্বকর্মা চতুর বিদ্বানদের সৎকার করতে থাকা, যাতে অনেক বাণিজ্য দ্বারা সংসারে উন্নতি হয় ॥৬॥

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