अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 6/ मन्त्र 1
सूक्त - जगद्बीजं पुरुषः
देवता - अश्वत्थः (वनस्पतिः)
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त
पुमा॑न्पुं॒सः परि॑जातोऽश्व॒त्थः ख॑दि॒रादधि॑। स ह॑न्तु॒ शत्रू॑न्माम॒कान्यान॒हं द्वेष्मि॒ ये च॒ माम् ॥
स्वर सहित पद पाठपुमा॑न् । पुं॒स: । परि॑ऽजात: । अ॒श्व॒त्थ: । ख॒दि॒रात् । अधि॑ । स: । ह॒न्तु॒ । शत्रू॑न् । मा॒म॒कान् । यान् । अ॒हम् । द्वेष्मि॑ । ये । च॒ । माम् ॥६.१॥
स्वर रहित मन्त्र
पुमान्पुंसः परिजातोऽश्वत्थः खदिरादधि। स हन्तु शत्रून्मामकान्यानहं द्वेष्मि ये च माम् ॥
स्वर रहित पद पाठपुमान् । पुंस: । परिऽजात: । अश्वत्थ: । खदिरात् । अधि । स: । हन्तु । शत्रून् । मामकान् । यान् । अहम् । द्वेष्मि । ये । च । माम् ॥६.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 6; मन्त्र » 1
विषय - पुमान् पुंसः, अश्वत्थः खदिरात
पदार्थ -
१. प्रभु (पुमान्) = पुमान् हैं, (पुनाति) = सबको पवित्र करनेवाले हैं। (पुंस:) = अपने जीवन को पवित्र करनेवाले पुरुष से (परिजात:) = प्रादुर्भूत होते हैं। अपने हृदय को पवित्र करनेवाला पुरुष ही प्रभु के प्रकाश को देखता है। २. प्रभु'अश्वत्थ' हैं-कर्मों में व्याप्त रहनेवाले पुरुष के हृदय में स्थित होते हैं। ये प्रभु (खदिरात्) = स्थिर वृत्तिवाले-वासनाओं का संहार करनेवाले पुरुष से (अधि) = [जातः]-अपने अन्दर प्रादुर्भूत किये जाते हैं[खद स्थैर्य हिंसायां च]। ३. (स:) = वे प्रभु ही (मामकान् शत्रून) = मेरे शत्रुओं को हन्तु नष्ट करें। उन शत्रुओं को (यान्) = जिन्हें (अहम्) = मैं (द्वेष्मि) = अप्रीतिकर समझता हूँ (च) = और (ये) = जो (माम्) = मुझे द्वेष से देखते हैं। काम-क्रोध, लोभ आदि शत्रु मुझ प्रिय नहीं और मैं उनका प्रिय नहीं हूँ। प्रभु मेरे इन शत्रुओं को मुझसे पृथक् करें।
भावार्थ -
पवित्र बनकर मैं पवित्र प्रभु के प्रकाश को देखें। स्थिर वृत्तिवाला बनकर मैं कर्मशीलों में व्याप्त उस प्रभु को पहचानें। प्रभु मेरे काम आदि शत्रुओं को विनष्ट करें।
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