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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 6

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 6/ मन्त्र 6
    सूक्त - जगद्बीजं पुरुषः देवता - अश्वत्थः (वनस्पतिः) छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - शत्रुनाशन सूक्त

    यथा॑श्वत्थ वानस्प॒त्याना॒रोह॑न्कृणु॒षेऽध॑रान्। ए॒वा मे॒ शत्रो॑र्मू॒र्धानं॒ विष्व॑ग्भिन्द्धि॒ सह॑स्व च ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यथा॑ । अ॒श्व॒त्थ॒ । वा॒न॒स्प॒त्यान् । आ॒ऽरोह॑न् । कृ॒णु॒षे । अध॑रान् । ए॒व । मे॒ । शत्रो॑: । मू॒र्धान॑म् । विष्व॑क् । भि॒न्ध्दि॒ । सह॑स्व । च॒ ॥६.६॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यथाश्वत्थ वानस्पत्यानारोहन्कृणुषेऽधरान्। एवा मे शत्रोर्मूर्धानं विष्वग्भिन्द्धि सहस्व च ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यथा । अश्वत्थ । वानस्पत्यान् । आऽरोहन् । कृणुषे । अधरान् । एव । मे । शत्रो: । मूर्धानम् । विष्वक् । भिन्ध्दि । सहस्व । च ॥६.६॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 6; मन्त्र » 6

    पदार्थ -

    १. हे (अश्वत्थ) = कर्मशील पुरुषों में स्थित होनेवाले प्रभो! (यथा) = जैसे आप (बानस्पत्यान्) = वनस्पति के सेवन से सात्विक बुद्धिवाले पुरुषों को (अरोहन्) = प्राप्त होते हुए [no reach] उन्हें (अधरान्) = विनीत (कृणुषे) = करते हैं-बनाते हैं, (एवं) = इसीप्रकार (मे) = मेरे भी (शत्रोः) = अभिमान आदि शत्रुओं के (मूर्धानम्) = मस्तक को (विष्वग् भिन्धि) = सब ओर से विदीर्ण कीजिए (च) = और (सहस्व) = उन शत्रुओं को पराभूत कीजिए। २. जिसे भी प्रभु प्राप्त होते हैं, वह अभिमानशून्य और विनीत बनता है। मैं भी प्रभु के अनुग्रह से निरभिमान बनें।

    भावार्थ -

    प्रभु मुझे प्रास हों। प्रभु-प्राप्ति के अनुपात में मैं विनीत बनता चलूँ।

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