अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 9/ मन्त्र 3
सूक्त - वामदेवः
देवता - द्यावापृथिव्यौ, विश्वे देवाः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - दुःखनाशन सूक्त
पि॒शङ्गे॒ सूत्रे॒ खृग॑लं॒ तदा ब॑ध्नन्ति वे॒धसः॑। श्र॑व॒स्युं शुष्मं॑ काब॒वं वध्रिं॑ कृण्वन्तु ब॒न्धुरः॑ ॥
स्वर सहित पद पाठपि॒शङ्गे॑ । सूत्रे॑ । खृग॑लम् । तत् । आ । ब॒ध्न॒न्ति॒ । वे॒धस॑: । श्र॒व॒स्युम् । शुष्म॑म् । का॒ब॒वम् । वध्रि॑म् । कृ॒ण्व॒न्तु॒ । ब॒न्धुर॑: ॥९.३॥
स्वर रहित मन्त्र
पिशङ्गे सूत्रे खृगलं तदा बध्नन्ति वेधसः। श्रवस्युं शुष्मं काबवं वध्रिं कृण्वन्तु बन्धुरः ॥
स्वर रहित पद पाठपिशङ्गे । सूत्रे । खृगलम् । तत् । आ । बध्नन्ति । वेधस: । श्रवस्युम् । शुष्मम् । काबवम् । वध्रिम् । कृण्वन्तु । बन्धुर: ॥९.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 9; मन्त्र » 3
विषय - 'श्रवस्यु-शुष्म-काबव' का वध्रीकरण
पदार्थ -
१. प्रभु इस ब्राह्मण्ड के एक-एक रूप में [पिश-form में] प्रविष्ट हो रहे हैं ('रूपं रूपं प्रतिरूपो बभूव) । प्रत्येक पदार्थ उस प्रभुरूप महान् सूत्र में ओत-प्रोत है ('मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव')। उस (पिशङ्गे सूत्रे) = प्रत्येक पदार्थ में सूत्ररूप में गये हुए उस महान् सूत्र [सूत्र सूत्रस्य यो विद्यात्०] में (खगलम्) =[तनुत्राणम्] कवच हैं-प्रभु एक महान् कवच हैं [ब्रह्म वर्म ममान्तरम्]। (वेधसः) = ज्ञानी पुरुष (तत्) = उस महान् कवच को (आबध्नन्ति) = बाँधते हैं। इस कवच से सुरक्षित होने के कारण ही ये काम-क्रोध-लोभ आदि शत्रुओं के शरों से विद्ध नहीं होते। २. इस कवच को (बन्धुरः) = बाँधनेवाले व्यक्ति (श्रवस्युम्) = यश को अपने साथ जोड़ने की कामना को-लोकैषणा को, (शुष्मम्) = धन की कामना को, जोकि दूसरों के धन के प्रति ईर्ष्या के कारण हमारा शोषण-सा कर देती है, उस वित्तषणा को, (काबवम्) = [कवति to colour] जीवन को अनुरञ्जित करनेवाली-अनुरागयुक्त करनेवाली पुत्रैषणा (वध्रिम्) = बन्धनयुक्त [नियन्त्रित] व निर्बल (कृण्वन्तु) = कर दें। वस्तुतः प्रभु को कवचरूप में धारण करनेवाले इन ऐषणाओं से नियन्त्रित नहीं होते। प्रभु-प्राप्ति की तुलना में इन एषणाओं का आकर्षण समास ही हो जाता
भावार्थ -
प्रभु हमारी लोकैषणा, वितैषणा और पुत्रैषणा को दूर करें।
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