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अथर्ववेद > काण्ड 3 > सूक्त 9

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  • अथर्ववेद - काण्ड 3/ सूक्त 9/ मन्त्र 5
    सूक्त - वामदेवः देवता - द्यावापृथिव्यौ, विश्वे देवाः छन्दः - चतुष्पदा निचृद्बृहती सूक्तम् - दुःखनाशन सूक्त

    दुष्ट्यै॒ हि त्वा॑ भ॒र्त्स्यामि॑ दूषयि॒ष्यामि॑ काब॒वम्। उदा॒शवो॒ रथा॑ इव श॒पथे॑भिः सरिष्यथ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दुष्ट्यै॑ । हि । त्वा॒ । भ॒त्स्यामि॑ । दू॒ष॒यि॒ष्यामि॑ । का॒ब॒वम् । उत् । आ॒शव॑: । रथा॑:ऽइव । श॒पथे॑भि: । स॒रि॒ष्य॒थ॒ ॥९.५॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दुष्ट्यै हि त्वा भर्त्स्यामि दूषयिष्यामि काबवम्। उदाशवो रथा इव शपथेभिः सरिष्यथ ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दुष्ट्यै । हि । त्वा । भत्स्यामि । दूषयिष्यामि । काबवम् । उत् । आशव: । रथा:ऽइव । शपथेभि: । सरिष्यथ ॥९.५॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 3; सूक्त » 9; मन्त्र » 5

    पदार्थ -

    १. हे प्रभो! (दुष्ट्यै) = वासनाओं को दुषित करने के लिए (हि) = निश्चय से (त्वा) = आपको (भन्स्यामि) = अपने में बाँधूंगा-आपको हृदय में स्थिर करने का प्रयत्न करूँगा। इसप्रकार (काबवम्) = संसार के प्रति अनुराग की वृत्ति को दूषयिष्यामि-दूषित करुंगा-इसे अपने से दूर करनेवाला बनूंगा। २. प्रभु कहते हैं कि ऐसा करने पर (आशवः) = शीघ्रगामी अश्वोंवाले (रथा: इव) = रथों की भाँति तुम (शपथेभिः) = आक्रोशों से (उत् सरिष्यथ) = बाहर गतिवाले होओगे-तुम्हारा जीवन आक्रोशों से ऊपर उठ जाएगा। ('आकुष्टः कुशलं वदेत्') का पाठ पढ़कर तुम सदा आक्रोश से दूर रहोगे।

    भावार्थ -

    उस प्रभुरूप कवच को पहनकर हम संसार के अनुराग से ऊपर उठे, अनासक्तभाव से कर्तव्यकर्मों को करते हुए हम लोग आक्रोशों से ऊपर उठें।

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