अथर्ववेद - काण्ड 4/ सूक्त 2/ मन्त्र 3
यं क्रन्द॑सी॒ अव॑तश्चस्कभा॒ने भि॒यसा॑ने॒ रोद॑सी॒ अह्व॑येथाम्। यस्या॒सौ पन्था॒ रज॑सो वि॒मानः॒ कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥
स्वर सहित पद पाठयम् । क्रन्द॑सी॒ इति॑ । अव॑त: । च॒स्क॒भा॒ने इति॑ । भि॒यसा॑ने॒ इति॑ । रोद॑सी॒ इति॑ । अह्व॑येथाम् । यस्य॑ । अ॒सौ । पन्था॑: । रज॑स: । वि॒ऽमान॑: । कस्मै॑ । दे॒वाय॑ । ह॒विषा॑ । वि॒धे॒म॒ ॥२.३॥
स्वर रहित मन्त्र
यं क्रन्दसी अवतश्चस्कभाने भियसाने रोदसी अह्वयेथाम्। यस्यासौ पन्था रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥
स्वर रहित पद पाठयम् । क्रन्दसी इति । अवत: । चस्कभाने इति । भियसाने इति । रोदसी इति । अह्वयेथाम् । यस्य । असौ । पन्था: । रजस: । विऽमान: । कस्मै । देवाय । हविषा । विधेम ॥२.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
विषय - यस्य असौ पन्थाः रजसो विमानः
पदार्थ -
१. (यम्) = जिस प्रभु को (रोदसी) = ये द्यावापृथिवी (अव-त:) = रक्षण के हेतु से (अह्वयेथाम्) = पुकारते हैं। ये द्यावापृथिवी (क्रन्दसी) = [क्रन्दन्ति क्रोशन्ति अनयोराश्रिता जनाः] प्रभु को पुकारनेवाले हैं, इनमें स्थित लोग (भियसाने) = भयभीत होते हुए सदा रक्षणार्थ प्रभु को पुकारते हैं। ये द्यावापृथिवी प्रभु की व्यवस्था में (चस्कभाने) = एक-दूसरे का धारण किये हुए हैं। यह पृथिवी यज्ञों द्वारा युलोक का धारण करती हैं, धुलोक वृष्टि द्वारा पृथिवी का धारण करता है। २. (यस्य) = जिस प्रभु का (असौ) = वह (पन्था:) = मार्ग-प्रभु-प्राप्ति का मार्ग (रजसः विमान:) = रजोगुण का विशेषरूप से माप तोलकर निर्माण करनेवाला है, अर्थात् प्रभु-प्राप्ति के मार्ग में-देवयान में-सत्त्वगण के साथ रजोगुण का परिमित अंश होता है, जो सत्त्वगुण को क्रियाशील बनाये रखता है। यह देववृत्ति का मनुष्य इसीलिए सात्त्विक होते हुए भी क्रियाशील होता है। हम उस आनन्दमय देव के लिए हवि के द्वारा पूजन करें।
भावार्थ -
सारा संसार रक्षण के लिए प्रभु को पुकारता है। प्रभु-प्राप्ति का सात्त्विक मार्ग रजो गुण के उचित पुट के कारण क्रियाशील होता है। हम यज्ञरूप प्रभु का हवि के द्वारा पूजन करें।
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