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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 3
    ऋषिः - वेनः देवता - आत्मा छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - आत्मविद्या सूक्त
    60

    यं क्रन्द॑सी॒ अव॑तश्चस्कभा॒ने भि॒यसा॑ने॒ रोद॑सी॒ अह्व॑येथाम्। यस्या॒सौ पन्था॒ रज॑सो वि॒मानः॒ कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यम् । क्रन्द॑सी॒ इति॑ । अव॑त: । च॒स्क॒भा॒ने इति॑ । भि॒यसा॑ने॒ इति॑ । रोद॑सी॒ इति॑ । अह्व॑येथाम् । यस्य॑ । अ॒सौ । पन्था॑: । रज॑स: । वि॒ऽमान॑: । कस्मै॑ । दे॒वाय॑ । ह॒विषा॑ । वि॒धे॒म॒ ॥२.३॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यं क्रन्दसी अवतश्चस्कभाने भियसाने रोदसी अह्वयेथाम्। यस्यासौ पन्था रजसो विमानः कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यम् । क्रन्दसी इति । अवत: । चस्कभाने इति । भियसाने इति । रोदसी इति । अह्वयेथाम् । यस्य । असौ । पन्था: । रजस: । विऽमान: । कस्मै । देवाय । हविषा । विधेम ॥२.३॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 3
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    हिन्दी (3)

    विषय

    ब्रह्म विद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (यम्) जिसको (चस्कभाने) परस्पर रोकती हुई (क्रन्दसी) ललकारती हुई दो सेनाएँ (अवतः) प्राप्त होती हैं, और [जिसको] (भियसाने) हे डरती हुई (रोदसी) सूर्य और भूमि ! (आह्वयेथाम्) तुम दोनों ने पुकारा है। (यस्य) जिसका (असौ पन्थाः) यह मार्ग (रजसः) संसार का (विमानः) विविध प्रकार नापनेवाला वा विमान रूप है, उस (कस्मै) प्रजापति सुखदाता परमेश्वर की (देवाय) उत्तम गुण के लिये (हविषा) भक्ति के साथ (विधेम) हम सेवा किया करें ॥३॥

    भावार्थ

    परमेश्वर को ही दो लड़ती हुई सेनाएँ पुकारती हैं, उसीकी आज्ञा में सूर्य आदि लोक रहते हैं, उसीकी व्याप्ति संसार भर में है, उसी परब्रह्म की भक्ति करके सब मनुष्य पुरुषार्थ करें ॥३॥ इस मन्त्र का पूर्वार्ध कुछ भेद से ऋ० १०।१२१।६ और यजु० ३२।७। और उत्तरार्ध यजु० ३२।६ में है ॥

    टिप्पणी

    ३−(यम्) प्रजापतिम् (क्रन्दसी) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। इति क्रदि आह्वाने रोदने च-असुन्। उगितश्च। पा० ४।१।६। इति ङीप्। वा छन्दसि। पा० ६।१।१०६। इति पूर्वसवर्णः। क्रन्दस्यौ। आक्रोशन्त्यौ। आह्वानं शब्दं वा कुर्वाणे द्वे सेने (अवतः) अव रक्षणगतिकान्तिप्रीत्यादिषु। अत्र गतौ प्राप्तौ-लट्। गच्छतः। प्राप्नुतः। (चस्कभाने) स्कभि प्रतिबन्धे-कानच्। प्रतिबन्धं कुर्वाणे (भियसाने) छन्दस्यसानच् शुजॄभ्याम्। उ० २।८६। इति ञिभी भये-असानच्। बिभ्यत्यौ (रोदसी) अ० ४।१।४। भूतानां निरोधनशीले द्यावापृथिव्यौ (अह्वयेथाम्) ह्वेञ् आह्वाने, स्पर्धायां शब्दे च-लङ्। युवाम् आहूतवत्यौ। (यस्य) कस्य। प्रजापतेः (असौ) प्रसिद्धः। दृश्यमानः (पन्थाः) पतस्थ च। उ० ४।१२। इति पत्लृ गतौ-इन्। मार्गः। (रजसः) अ० ४।१।४। लोकस्य (विमानः) वि+माङ् माने ल्युट्। परिच्छेदकः सर्वमानः। देवरथः। व्योमयानम्। विमानवत्। अन्यद् व्याख्यातम् ॥

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    विषय

    यस्य असौ पन्थाः रजसो विमानः

    पदार्थ

    १. (यम्) = जिस प्रभु को (रोदसी) = ये द्यावापृथिवी (अव-त:) = रक्षण के हेतु से (अह्वयेथाम्) = पुकारते हैं। ये द्यावापृथिवी (क्रन्दसी) = [क्रन्दन्ति क्रोशन्ति अनयोराश्रिता जनाः] प्रभु को पुकारनेवाले हैं, इनमें स्थित लोग (भियसाने) = भयभीत होते हुए सदा रक्षणार्थ प्रभु को पुकारते हैं। ये द्यावापृथिवी प्रभु की व्यवस्था में (चस्कभाने) = एक-दूसरे का धारण किये हुए हैं। यह पृथिवी यज्ञों द्वारा युलोक का धारण करती हैं, धुलोक वृष्टि द्वारा पृथिवी का धारण करता है। २. (यस्य) = जिस प्रभु का (असौ) = वह (पन्था:) = मार्ग-प्रभु-प्राप्ति का मार्ग (रजसः विमान:) = रजोगुण का विशेषरूप से माप तोलकर निर्माण करनेवाला है, अर्थात् प्रभु-प्राप्ति के मार्ग में-देवयान में-सत्त्वगण के साथ रजोगुण का परिमित अंश होता है, जो सत्त्वगुण को क्रियाशील बनाये रखता है। यह देववृत्ति का मनुष्य इसीलिए सात्त्विक होते हुए भी क्रियाशील होता है। हम उस आनन्दमय देव के लिए हवि के द्वारा पूजन करें।

    भावार्थ

    सारा संसार रक्षण के लिए प्रभु को पुकारता है। प्रभु-प्राप्ति का सात्त्विक मार्ग रजो गुण के उचित पुट के कारण क्रियाशील होता है। हम यज्ञरूप प्रभु का हवि के द्वारा पूजन करें।

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    भाषार्थ

    (क्रन्दसी) जिनमें आक्रन्दन अर्थात् शोर हो रहा है, (चस्कभाने) सबका धारण करनेवाली, (भियसाने) तथा भय करती हुई (रोदसी) द्यावापृथिवी (यम्) जिसे (अवत:) रक्षणार्थ प्राप्त होती हैं, और जिसका आह्वान करती हैं। (यस्य) जिसका (असौ पन्थाः) वह मार्ग है, (रजसः विमानः) रञ्जक लोकसमूह का निर्माण करना, उस (कस्मै देवाय) किस देव के लिए, (हविषा) हवि द्वारा, (विधेम) हम परिचर्या अर्थात् सेवा भेंट करें।

    टिप्पणी

    [चस्कभाने= स्कभि प्रतिबन्धे (भ्वादिः)+कानच्, लिटि। भियसाने=भी भये+असानच् (उणा० २।८७)। भय इसलिए कि हम निराधार आकाश में गिर न जाएं। रोदसी=रोधसी, द्यावापृथिवी (निघं० ३।३०)। रोध:=नदी का किनारा। ये दो होते हैं जिनके मध्य में नदी प्रवाह होता है। द्यौः और पृथिवी संसाररूपी नदी के दो किनारे हैं, जिनमें कि "अश्मन्वती" संसाररूपी नदी प्रवाहित हो रही है (यजु:० ३५।१०)। रोदसी=रोधसी (निरुक्त ६।१।१)।]

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Who to Worship?

    Meaning

    Which lord divine shall we worship with homage of havi? On whom mutually sustained heaven and earth seek for support, whom sun and earth moving in orbit under cosmic force call upon for balance, who creates and comprehends that extensive path of space for the particles of matter and energy, that lord of peace and power shall we serve and worship with homage and havi.

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    Translation

    Whom the two warring hosts invoke for protection; whom the terror-stricken heaven and earth call; whose yonder path measures out the midspace, that divinity alone and none else we adore with our oblations.

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    Translation

    He by whose protective power the heaven and the earth which are the source of pleasures and sufferings of creatures, are established with support of each other; to whom these sun and earth trembling with fear call for their protection; to whom belongs this space and who is the creator of the world; to that All-blissful Divinity we offer our humble worship.

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    Translation

    To whom, the Earth and Heaven, standing together through mutual attraction, look for protection; whom the Heaven and Earth invoke for aid in terror; on whose support rests this distant atmosphere. Who is the Maker of all planets; may we worship with devotion, Him, the Illuminator and Giver of happiness.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३−(यम्) प्रजापतिम् (क्रन्दसी) सर्वधातुभ्य इन्। उ० ४।११८। इति क्रदि आह्वाने रोदने च-असुन्। उगितश्च। पा० ४।१।६। इति ङीप्। वा छन्दसि। पा० ६।१।१०६। इति पूर्वसवर्णः। क्रन्दस्यौ। आक्रोशन्त्यौ। आह्वानं शब्दं वा कुर्वाणे द्वे सेने (अवतः) अव रक्षणगतिकान्तिप्रीत्यादिषु। अत्र गतौ प्राप्तौ-लट्। गच्छतः। प्राप्नुतः। (चस्कभाने) स्कभि प्रतिबन्धे-कानच्। प्रतिबन्धं कुर्वाणे (भियसाने) छन्दस्यसानच् शुजॄभ्याम्। उ० २।८६। इति ञिभी भये-असानच्। बिभ्यत्यौ (रोदसी) अ० ४।१।४। भूतानां निरोधनशीले द्यावापृथिव्यौ (अह्वयेथाम्) ह्वेञ् आह्वाने, स्पर्धायां शब्दे च-लङ्। युवाम् आहूतवत्यौ। (यस्य) कस्य। प्रजापतेः (असौ) प्रसिद्धः। दृश्यमानः (पन्थाः) पतस्थ च। उ० ४।१२। इति पत्लृ गतौ-इन्। मार्गः। (रजसः) अ० ४।१।४। लोकस्य (विमानः) वि+माङ् माने ल्युट्। परिच्छेदकः सर्वमानः। देवरथः। व्योमयानम्। विमानवत्। अन्यद् व्याख्यातम् ॥

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