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अथर्ववेद के काण्ड - 4 के सूक्त 2 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 2/ मन्त्र 7
    ऋषिः - वेनः देवता - आत्मा छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - आत्मविद्या सूक्त
    87

    हि॑रण्यग॒र्भः सम॑वर्त॒ताग्रे॑ भू॒तस्य॑ जा॒तः पति॒रेक॑ आसीत्। स दा॑धार पृथि॒वीमु॒त द्यां कस्मै॑ दे॒वाय॑ ह॒विषा॑ विधेम ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हि॒र॒ण्य॒ऽग॒र्भ: । सम् । अ॒व॒र्त॒त॒ । अग्रे॑ । भू॒तस्य॑ । जा॒त: । पति॑: । एक॑: । आ॒सी॒त् । स: । दा॒धा॒र॒ । पृ॒थि॒वीम् । उ॒त । द्याम् । कस्मै॑ । दे॒वाय॑ । ह॒विषा॑ । वि॒धे॒म॒ ॥२.७॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे भूतस्य जातः पतिरेक आसीत्। स दाधार पृथिवीमुत द्यां कस्मै देवाय हविषा विधेम ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हिरण्यऽगर्भ: । सम् । अवर्तत । अग्रे । भूतस्य । जात: । पति: । एक: । आसीत् । स: । दाधार । पृथिवीम् । उत । द्याम् । कस्मै । देवाय । हविषा । विधेम ॥२.७॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 4; सूक्त » 2; मन्त्र » 7
    Acknowledgment

    हिन्दी (4)

    विषय

    ब्रह्म विद्या का उपदेश।

    पदार्थ

    (हिरण्यगर्भः) तेजवाले लोकों का आधार (अग्रे) पहिले ही पहिले (सम्) ठीक-ठीक (अवर्तत) वर्त्तमान था। वही (जातः) प्रकट होकर (भूतस्य) पृथिवी आदि पञ्चभूत का (एकः) एक (पतिः) पति, ईश्वर (आसीत्) हुआ, (सः) उसने (पृथिवीम्) पृथिवी (उत) और (द्याम्) सूर्य को (दाधार) धारण किया, उस (कस्मै) सुखदायक प्रजापति परमेश्वर की (देवाय) दिव्य गुण के लिये (हविषा) भक्ति के साथ (विधेम) हम सेवा किया करें ॥७॥

    भावार्थ

    सर्वशक्तिमान् अविनाशी परमात्मा प्रलयकाल में विद्यमान था। उसके कर्मों से ज्ञात होता है कि उस अकेले ने सूक्ष्म पञ्चभूत का यथावत् संयोग वियोग करके पृथिवी, सूर्य आदि सृष्टि को रचा और धारण किया है, उसकी उपासना से उत्तम गुण प्राप्त करके आनन्द भोगें ॥७॥ यह मन्त्र कुछ भेद से ऋ० १०।१२१।१, यजु० १३।४ तथा २५।१० और निरु० १०।२३ में है ॥

    टिप्पणी

    ७−(हिरण्यगर्भः) हिरण्यं व्याख्यातम्-अ० १।९।२। गर्भश्च, अ० ३।१०।१२। हिरण्यगर्भो हिरण्यमयो गर्भो हिरण्यमयो गर्भोऽस्येति-वा निरु० १०।२३। हिरण्यानि सूर्यादितेजांसि गर्भे यस्य स परमात्मा-इति दयानन्दभाष्ये यजु० २५।१०। (सम्) प्रकर्षेण (अवर्तत) वृतु वर्तने-लङ्। वर्तमान आसीत् (अग्रे) सृष्टेः प्राक् (भूतस्य) पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशपञ्चकस्य वस्तुतत्त्वस्य। उदकस्य-निघ० १।१२। (जातः) उत्पन्नः। प्रादुर्भूतः। प्रसिद्धः सन् (पतिः) अ० १।१।१। पाता। रक्षिता। ईश्वरः। स्वतन्त्रः (एकः) मुख्यः। अद्वितीयः (आसीत्) अभवत् (दाधार) धृञ् धारणे-लिट्। धृतवान् (पृथिवीम्) भूमिम् (उत) अपि च (द्याम्) अ० २।१२।६। प्रकाशम्। सूर्यम्। अन्यद् गतम् ॥

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    विषय

    'हिरण्यगर्भ' प्रभु

    पदार्थ

    १. (हिरण्यगर्भ:) = ज्योतिर्मय पदार्थों को गर्भ में धारण करनेवाला वह प्रभु (अग्रे समवर्त्तत) = पहले से ही है-वह सृष्टि से पूर्व है। वह कभी उत्पन्न नहीं होता। (जात:) = सदा से प्रादुर्भूत हुआ हुआ वह प्रभु (भूतस्य) = प्राणिमात्र का (एक:) = अकेला ही (पतिः आसीत्) = रक्षक है। वे प्रभु सृष्टि के निर्माण व धारणरूप कार्यों में किसी के साहाय्य की अपेक्षा नहीं करते। २. (सः) = वे प्रभ ही (पृथिवीम्) = इस पृथिवी को (उत) = और (द्याम्) = धुलोक को दाधार धारण कर रहे हैं। उस (कस्मै) = आनन्दमय (देवाय) = सर्वप्रद, प्रकाशमय प्रभु के लिए (हविषा) = हवि के द्वारा (विधेम) = हम पूजन करें।

    भावार्थ

    सारे ब्रह्माण्ड को गर्भरूप में धारण करनेवाले प्रभु कभी बने नहीं। सदा से विद्यमान प्रभु ही प्राणिमात्र के रक्षक हैं। वे ही पृथिवीलोक व द्युलोक का धारण करते हैं। हम हवि के द्वारा उस प्रभु का अर्चन करें।

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    भाषार्थ

    (अग्रे) प्रारम्भ में (हिरण्यगर्भः) हिरण्य सदृश चमकीले सूर्य, तारा आदि जिसमें गर्भीभूत अवस्था में थे वह परमेश्वर (समवर्तत) प्रकट हुआ, (जातः) और अधिक प्रकट हुआ परमेश्वर (भूतस्य) भूत भौतिक जगत् का (एकः पतिः) वह एक पति (आसीत्) था। (सः) उसने (पृथिवी) पृथिवी को, (उत) तथा (द्याम्) द्यौः को (दाधार) धारित तथा पोषित कियाा, उस (कस्मै देवाय) किस देव के लिए, (हविषा) हवि द्वारा, (विधेम) हम परिचर्या अर्थात् सेवा भेंट करें।

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    विषय

    ईश्वर की महिमा।

    भावार्थ

    (हिरण्यगर्भः) सब गतिमान् एवं प्रकाशमान, स्वर्ण के समान जाज्वल्यमान सूर्यों और आत्माओं को अपने भीतर आश्रय देने वाला, (भूतस्य) इंस उत्पन्न विश्व के (अग्रे) आगे (सम् अवर्तत) विद्यमान रहा। वही (एकः पतिः) एकमात्र परिपालक स्वामी (जातः) था (आसीत्) रहा और रहेगा। और (सः) वही (पृथिवीम्) इस पृथिवी को (उत्त) और (द्यां दाधार) द्यौलोक को भी धारण करता है, (कस्मै०) उस सुखरूप परमानन्द प्रभु की भक्ति से हम उपासना करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वेन ऋषिः। आत्मा देवता। १-२ त्रिष्टुभः।१ पुरोऽनुष्टुप्। ८ उपरिष्टाज्ज्योतिः । अष्टर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Who to Worship?

    Meaning

    Which lord divine do we worship with homage of havi? The golden seed of the universe, before the state of its emergence into objective form, lay in the womb of potential Prakrti. Of that Prakrti, as of the forms of existence later born, the one and only lord was Hiranyagarbha, golden father and mother both, of things now in existence. That one lord of golden glory who sustained the potential universe and who sustains the heavens and earths now, we worship with homage and havi.

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    Translation

    Before all, the Lord having all the: bright.cónstellations in His womb, existed every-where. He was the only lord of every thing born. He holds earth as well as heaven. That alone and none else we adore with our oblations. (cf. Yv. XII4; also Rg. X.121.1)

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    Translation

    God who possesses all the luminous worlds within Himself and exists from the very eternity, is they only one Manifest Lord of all the created objects. He is supporting the earth and heaven; to that All-blissful Divinity we offer our humble worship.

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    Translation

    God, the Master of luminous planets, existed before the creation of the world. He is the One Lord of all created objects. He sustains the earth, the sun and the created world. May we worship with devotion, Him, the Illuminator, and Giver of happiness.

    Footnote

    See Yajur, 13-4, 25-10.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ७−(हिरण्यगर्भः) हिरण्यं व्याख्यातम्-अ० १।९।२। गर्भश्च, अ० ३।१०।१२। हिरण्यगर्भो हिरण्यमयो गर्भो हिरण्यमयो गर्भोऽस्येति-वा निरु० १०।२३। हिरण्यानि सूर्यादितेजांसि गर्भे यस्य स परमात्मा-इति दयानन्दभाष्ये यजु० २५।१०। (सम्) प्रकर्षेण (अवर्तत) वृतु वर्तने-लङ्। वर्तमान आसीत् (अग्रे) सृष्टेः प्राक् (भूतस्य) पृथिव्यप्तेजोवाय्वाकाशपञ्चकस्य वस्तुतत्त्वस्य। उदकस्य-निघ० १।१२। (जातः) उत्पन्नः। प्रादुर्भूतः। प्रसिद्धः सन् (पतिः) अ० १।१।१। पाता। रक्षिता। ईश्वरः। स्वतन्त्रः (एकः) मुख्यः। अद्वितीयः (आसीत्) अभवत् (दाधार) धृञ् धारणे-लिट्। धृतवान् (पृथिवीम्) भूमिम् (उत) अपि च (द्याम्) अ० २।१२।६। प्रकाशम्। सूर्यम्। अन्यद् गतम् ॥

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