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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 16

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 16/ मन्त्र 11
    सूक्त - विश्वामित्रः देवता - एकवृषः छन्दः - आसुरी सूक्तम् - वृषरोगनाशमन सूक्त

    यद्ये॑काद॒शोऽसि॒ सोऽपो॑दकोऽसि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यदि॑ । ए॒का॒द॒श: । असि॑ । स: । अप॑ऽउदक: । अ॒सि॒ ॥१६.११॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यद्येकादशोऽसि सोऽपोदकोऽसि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यदि । एकादश: । असि । स: । अपऽउदक: । असि ॥१६.११॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 16; मन्त्र » 11

    पदार्थ -

    १. (यदि एकदशः असि) = यदि तू ग्यारहवें मनवाला है, अर्थात् मन को तूने वश में किया है तो तू (अपोदकः असि) = [अपनद्धम् उदकं येन] अपोदक है-रेत:कणरूप जलों का शरीर में ही बाँधनेवाला है और वस्तुत: इन रेत:कणरूप जलों [आपः रेतो भूत्वा०] को शरीर में बाँधने पर ही जीवन रसमय बनता है। मन को वशीभूत कर लेने पर सब इन्द्रियों तो वशीभूत हो ही जाती हैं, ये इन्द्रियाँ विषयों की ओर न जाकर शक्तिशाली बनती हैं।

    भावार्थ -

    मन को वशीभूत करने पर सब इन्द्रियाँ भी सशक्त बनती हैं। वैषयिक वृत्ति न होने पर शरीर में शक्ति की ऊर्ध्व गति होती है और जीवन आनन्दमय बनता है।

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