अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 17/ मन्त्र 1
सूक्त - मयोभूः
देवता - ब्रह्मजाया
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मजाया सूक्त
तेऽव॒दन्प्र॑थ॒मा ब्र॑ह्मकिल्बि॒षेऽकू॑पारः सलि॒लो मा॑तरिश्वा। वी॒डुह॑रा॒स्तप॑ उ॒ग्रं म॑यो॒भूरापो॑ दे॒वीः प्र॑थम॒जा ऋ॒तस्य॑ ॥
स्वर सहित पद पाठते । अ॒व॒दन्। प्र॒थ॒मा: । ब्र॒ह्म॒ऽकि॒ल्बि॒षे । अकू॑पार: । स॒लि॒ल: । मा॒त॒रिश्वा॑ । वी॒डुऽह॑रा: । तप॑: । उ॒ग्रम् । म॒य॒:ऽभू: । आप॑: । दे॒वी:। प्र॒थ॒म॒ऽजा: । ऋ॒तस्य॑ ॥१७.१॥
स्वर रहित मन्त्र
तेऽवदन्प्रथमा ब्रह्मकिल्बिषेऽकूपारः सलिलो मातरिश्वा। वीडुहरास्तप उग्रं मयोभूरापो देवीः प्रथमजा ऋतस्य ॥
स्वर रहित पद पाठते । अवदन्। प्रथमा: । ब्रह्मऽकिल्बिषे । अकूपार: । सलिल: । मातरिश्वा । वीडुऽहरा: । तप: । उग्रम् । मय:ऽभू: । आप: । देवी:। प्रथमऽजा: । ऋतस्य ॥१७.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 17; मन्त्र » 1
विषय - अकूपारः सलिलः मातरिश्वा
पदार्थ -
१. जिस समय विषयों में क्रीड़ा करता हुआ पुरुष ब्रह्म को भूल जाता है, तब यह भूल जाना ब्रह्मविषयक किल्बिष वा 'ब्रह्मकिल्बिष' कहलाता है। इस (ब्रह्मकिल्बिषे) = ब्रह्मविषयक पाप के होने पर (ते) = वे (प्रथमा:) = देवताओं में प्रथम स्थान रखनेवाले (अकूपार:) = [अकुत्सितपार:, दूरपारः, महागतिः] आदित्य (सलिल:) = जल तथा (मातरिश्वा) = वायु (अवदन्) = उस ब्रह्म का उपदेश करते हैं। इन्हें देखकर उस विषय-प्रवण मनुष्य को भी प्रभु का स्मरण हो आता है। सूर्य, जल और वायु उसे प्रभु की महिमा को कहते प्रतीत होते हैं। २. प्रभु के तीव्र तप से ऋत और सत्य भी उत्पन्न हुए। (ऋतस्य प्रथमजा:) = इस ऋत के मुख्य प्रादुर्भावरूप (उग्रं तपः) = अत्यन्त तेजस्वी, दीप्त, सूर्य (मयोभुः) = कल्याण देनेवाली वायु तथा (देवी: आपः) = दिव्य गुणवाले जल ये सब (वीडुहरा:) = बड़े तीन तेजवाले होते हैं। इनमें उस-उस तेज को स्थापित करनेवाले वे प्रभु ही तो हैं। इन सबमें उस प्रभु की ही तो महिमा दीखती है।
भावार्थ -
सूर्य, जल व बायु प्रभु से उत्पादित ऋत के प्रथम प्रादुर्भाव हैं। इन सबमें प्रभु की महिमा दिखती है।
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