अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 17/ मन्त्र 11
सूक्त - मयोभूः
देवता - ब्रह्मजाया
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मजाया सूक्त
पु॑न॒र्दाय॑ ब्रह्मजा॒यां कृ॒त्वा दे॒वैर्नि॑किल्बि॒षम्। ऊर्जं॑ पृथि॒व्या भ॒क्त्वोरु॑गा॒यमुपा॑सते ॥
स्वर सहित पद पाठपु॒न॒:ऽदाय॑ । ब्र॒ह्म॒ऽजा॒याम् । कृ॒त्वा । दे॒वै: । नि॒ऽकि॒ल्बि॒षम् । ऊर्ज॑म् । पृ॒थि॒व्या: । भ॒क्त्वा । उ॒रु॒ऽगा॒यम् । उप॑ । आ॒स॒ते॒ ॥१७.११॥
स्वर रहित मन्त्र
पुनर्दाय ब्रह्मजायां कृत्वा देवैर्निकिल्बिषम्। ऊर्जं पृथिव्या भक्त्वोरुगायमुपासते ॥
स्वर रहित पद पाठपुन:ऽदाय । ब्रह्मऽजायाम् । कृत्वा । देवै: । निऽकिल्बिषम् । ऊर्जम् । पृथिव्या: । भक्त्वा । उरुऽगायम् । उप । आसते ॥१७.११॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 17; मन्त्र » 11
विषय - आदर्श संन्यासी
पदार्थ -
१. वानप्रस्थ में (ब्रह्मजायाम्) = प्रभु से प्रादुर्भूत की गई वेदवाणी को (पुन: दाय) = फिर से औरों के लिए देकर तथा (देवै:) = दिव्य गुणों के धारण से (निकिल्बिषम् कृत्वा) = अपने जीवन को पाप रहित करके (पृथिव्याः) = इस पृथिवीरूपी शरीर के (ऊर्जम्) = बल व प्राणशक्ति का भक्त्वा सेवन करके (उरुगायम्) = खूब ही गायन के योग्य प्रभु का उपासते-उपासन करते हैं। २. आदर्श संन्यासी का कर्तव्य है कि वह [क] अपने जीवन को दिव्य, पापशून्य बनाये, [ख] शरीर को स्वस्थ व सबल रक्खे [ग] शक्ति की स्थिरता के लिए प्रभु का उपासन करे।
भावार्थ -
हम देव बनें, पापों से दूर रहें, शरीर को स्वस्थ व सबल बनाएँ, प्रभु का उपासन करें। यही सच्चा संन्यास है।
इस भाष्य को एडिट करें