अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 17/ मन्त्र 3
सूक्त - मयोभूः
देवता - ब्रह्मजाया
छन्दः - त्रिष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मजाया सूक्त
हस्ते॑नै॒व ग्रा॒ह्य॑ आ॒धिर॑स्या ब्रह्मजा॒येति॒ चेदवो॑चत्। न दू॒ताय॑ प्र॒हेया॑ तस्थ ए॒षा तथा॑ रा॒ष्ट्रं गु॑पि॒तं क्ष॒त्रिय॑स्य ॥
स्वर सहित पद पाठहस्ते॑न । ए॒व । ग्रा॒ह्य᳡: । आ॒ऽधि: । अ॒स्या॒: । ब्र॒ह्म॒ऽजा॒या । इति॑ । च॒ । इत् । अवो॑चत् । न । दू॒ताय॑ । प्र॒ऽहेया॑ । त॒स्थे॒ । ए॒षा । तथा॑ । रा॒ष्ट्रम् । गु॒पि॒तम् । क्ष॒त्रिय॑स्य ॥१७.३॥
स्वर रहित मन्त्र
हस्तेनैव ग्राह्य आधिरस्या ब्रह्मजायेति चेदवोचत्। न दूताय प्रहेया तस्थ एषा तथा राष्ट्रं गुपितं क्षत्रियस्य ॥
स्वर रहित पद पाठहस्तेन । एव । ग्राह्य: । आऽधि: । अस्या: । ब्रह्मऽजाया । इति । च । इत् । अवोचत् । न । दूताय । प्रऽहेया । तस्थे । एषा । तथा । राष्ट्रम् । गुपितम् । क्षत्रियस्य ॥१७.३॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 17; मन्त्र » 3
विषय - स्वाध्याय से कष्ट-निवारण
पदार्थ -
१. जिस समय एक आराधक इस वेदवाणी को यह (ब्रह्मजाया) = ब्रह्म का प्रकाश [प्रादुर्भाव] करनेवाली है, (इति चेत् अवोचत्) = इसप्रकार कहता है तब (अस्याः हस्तेन एव) = इस ब्रह्मजाया के हाथ से ही-आनय से ही (आधिः) = सब दुःख (ग्राह्य) = वश में करने योग्य होते हैं। ब्रह्मजाया का हाथ पकड़ते ही सब कष्ट दूर हो जाते है। २. (एषा) = यह बेदवाणी दूताया प्रहेया-दूत के लिए भेजने योग्य होती हुई (न तस्थे) = स्थित नहीं होती. अर्थात इसे स्वयं न पढ़कर किसी और से इसका पाठ कराते रहने से पुण्य प्राप्त नहीं होता। क्(षत्रियस्य राष्ट्रं तथा गुपितम्) = एक क्षत्रिय राष्ट्र भी तो इसीप्रकार रक्षित होता है। दूसरों को शासन सौंपकर, स्वयं भोग-विलास में पड़े रहनेवाला राजा कभी राष्ट्र को सुरक्षित नहीं कर पाता।
भावार्थ -
स्वाध्याय मनुष्य को स्वयं करना है। यह स्वाध्याय उसके सब कष्टों को दूर करेगा।
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