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अथर्ववेद > काण्ड 5 > सूक्त 17

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  • अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 17/ मन्त्र 4
    सूक्त - मयोभूः देवता - ब्रह्मजाया छन्दः - त्रिष्टुप् सूक्तम् - ब्रह्मजाया सूक्त

    यामा॒हुस्तार॑कै॒षा वि॑के॒शीति॑ दु॒च्छुनां॒ ग्राम॑मव॒पद्य॑मानाम्। सा ब्र॑ह्मजा॒या वि दु॑नोति रा॒ष्ट्रं यत्र॒ प्रापा॑दि श॒श उ॑ल्कु॒षीमा॑न् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    याम् । आ॒हु: । तार॑का । ए॒षा । वि॒ऽके॒शी । इति॑ । दु॒च्छु॒ना॑म्। ग्राम॑म् । अ॒व॒ऽपद्य॑मानाम् । सा । ब्र॒ह्म॒ऽजा॒या । वि । दु॒नो॒ति॒। रा॒ष्ट्रम् । यत्र॑ । प्र॒ऽअपा॑दि । श॒श: । उ॒ल्कु॒षीऽमा॑न् ॥१७.४॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यामाहुस्तारकैषा विकेशीति दुच्छुनां ग्राममवपद्यमानाम्। सा ब्रह्मजाया वि दुनोति राष्ट्रं यत्र प्रापादि शश उल्कुषीमान् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    याम् । आहु: । तारका । एषा । विऽकेशी । इति । दुच्छुनाम्। ग्रामम् । अवऽपद्यमानाम् । सा । ब्रह्मऽजाया । वि । दुनोति। राष्ट्रम् । यत्र । प्रऽअपादि । शश: । उल्कुषीऽमान् ॥१७.४॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 17; मन्त्र » 4

    पदार्थ -

    (याम्) = जिस वेदवाणी को (आहुः) = कहते है कि (एषा तारका) = [तारका ज्योतिषि इति इत्वाभाव] यह तारनेवाली है, (विकेशी इति) = यह निश्चत से विशिष्ट प्रकाश की किरणोंवाली है, (दुच्छुनाम्) = दुःखों व दुर्गति के (ग्रामम्) = समूह को (अवपद्यमानाम्) = हमसे दूर करनेवाली है। (सा ब्रह्मजाया) = वह प्रभु से प्रादुर्भूत हुई वेदवाणी (राष्ट्रम्) = राष्ट्र को (विदुनोति) = सन्ताप-शून्य करती है। २. यह उस राष्ट्र को सन्ताप-शुन्य करती है (यत्र) = जहाँ कि (उल्कुषीमान्) = [उल्कुषी-fire] मशाल को हाथ में लिये हुए (शश:) = प्लुतगतिवाला-खूब क्रियाशील पुरुष (प्रापादि) = प्रकृष्ट गतिवाला होता है। यह ज्ञान के प्रकाश को सर्वत्र फैलाता हुआ लोगों को उत्साहित करता है और इसप्रकार राष्ट्र को जागरित करनेवाला होता है।

    भावार्थ -

    वेदवाणी हमें तारनेवाली है, विशिष्ट प्रकार की रश्मियों को प्राप्त करानेवाली है। दु:खों को दूर करनेवाली है। यह देववाणी उस राष्ट्र को सन्ताप-शून्य करती है, जहाँ उत्साही पुरुष इसके सन्देश को राष्ट्र में सर्वत्र सुनाते हैं।

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