अथर्ववेद - काण्ड 5/ सूक्त 17/ मन्त्र 15
सूक्त - मयोभूः
देवता - ब्रह्मजाया
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - ब्रह्मजाया सूक्त
नास्य॑ श्वे॒तः कृ॑ष्ण॒कर्णो॑ धु॒रि यु॒क्तो म॑हीयते। यस्मि॑न्रा॒ष्ट्रे नि॑रु॒ध्यते॑ ब्रह्मजा॒याचि॑त्त्या ॥
स्वर सहित पद पाठन । अ॒स्य॒ । श्वे॒त: । कृ॒ष्ण॒ऽकर्ण॑: । धु॒रि । यु॒क्त: । म॒ही॒य॒ते॒ । यस्मि॑न् । रा॒ष्ट्रे । नि॒ऽरु॒ध्यते॑ । ब्र॒ह्म॒ऽजा॒या । अचि॑त्त्या ॥१७.१५॥
स्वर रहित मन्त्र
नास्य श्वेतः कृष्णकर्णो धुरि युक्तो महीयते। यस्मिन्राष्ट्रे निरुध्यते ब्रह्मजायाचित्त्या ॥
स्वर रहित पद पाठन । अस्य । श्वेत: । कृष्णऽकर्ण: । धुरि । युक्त: । महीयते । यस्मिन् । राष्ट्रे । निऽरुध्यते । ब्रह्मऽजाया । अचित्त्या ॥१७.१५॥
अथर्ववेद - काण्ड » 5; सूक्त » 17; मन्त्र » 15
विषय - वेदत्याग व मूर्ख अनादृत राजा
पदार्थ -
१. (यस्मिन् राष्ट्र) = जिस राष्ट्र में (अचित्या) = नासमझी से (ब्रह्मजाया) = प्रभु से प्रादुर्भूत की गई यह वेदवाणी (निरुध्यते) = निरुद्ध की जाती है, अर्थात् जहाँ ज्ञान के प्रसार पर बल नहीं दिया जाता, वहाँ (अस्य) = इस राष्ट्र-रथ का (क्षत्ता) = सारथि (निष्कग्रीव:) = सुवर्णवत् दीस ज्ञान के कण्ठहारवाला (सूनानाम्) = ज्ञान-रश्मियों के [सूना-Aray of light ] (अग्रत: न ऐति) = आगे नहीं चलता, अर्थात् ज्ञान का प्रसार न होने पर राष्ट्र का सारथि भी ज्ञानी नहीं रहता और मूर्ख राजा राष्ट्र-रथ को लक्ष्य से दूर ले-जाता है। २. इसीप्रकार जिस राष्ट्र में नासमझी से वेदवाणी के प्रसार का निरोध होता है, (अस्य) = इस राष्ट्र का (श्वेत:) = श्वेत, अर्थात् शुद्ध आचरणवाला (कृष्णकर्ण:) = आकृष्ट किये हैं कर्ण जिसने, अर्थात् जिसकी आज्ञा को सब प्रजा सुनती है, ऐसा (धुरियुक्त:) = राष्ट्र-शकट के जुए में जुता हुआ राजा (न महीयते) = उत्तम महिमा को प्राप्त नहीं होता, अर्थात् इस राष्ट्र में राजा भी मलिन कर्मोंवाला तथा प्रजा से उपेक्षित व अनादृत होता है।
भावार्थ -
ज्ञान के प्रचार के अभाव में राष्ट्र में राजा भी ज्ञानी नहीं रहता और अन्तत: मलिन कौवाला व प्रजा से उपेक्षित व अनादृत हो जाता है।
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