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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 10/ मन्त्र 1
सूक्त - शन्ताति
देवता - अग्निः
छन्दः - साम्नी त्रिष्टुप्
सूक्तम् - संप्रोक्षण सूक्त
पृ॑थि॒व्यै श्रोत्रा॑य॒ वन॒स्पति॑भ्यो॒ऽग्नयेऽधि॑पतये॒ स्वाहा॑ ॥
स्वर सहित पद पाठपृ॒थि॒व्यै । श्रोत्रा॑य । वन॒स्पति॑ऽभ्य: । अ॒ग्नये॑ । अधि॑ऽपतये । स्वाहा॑ ॥१०.१॥
स्वर रहित मन्त्र
पृथिव्यै श्रोत्राय वनस्पतिभ्योऽग्नयेऽधिपतये स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठपृथिव्यै । श्रोत्राय । वनस्पतिऽभ्य: । अग्नये । अधिऽपतये । स्वाहा ॥१०.१॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 10; मन्त्र » 1
विषय - पृथिवी, अन्तरिक्ष, धुलोक
पदार्थ -
१. मैं (पृथिव्यै) = इस पृथिवी के लिए (स्वाहा) = अपना अर्पण करता हूँ। भूमि को माता मानता हुआ उसकी गोद में बैठता हूँ। यहाँ श्रोत्राय वाणी द्वारा उच्चरित ज्ञान के श्रवण के लिए अपने को अर्पित करता हूँ। ज्ञान की बातों को सुनना ही मेरा मुख्य कार्य होता है। यहाँ वनस्पतिभ्यः-वनस्पतियों के लिए मैं अपना अर्पण करता हूँ-वानस्पतिक पदार्थों को ही खाता हूँ और उनके द्वारा शरीर में उत्पन्न अनये-अग्नितत्त्व के लिए अपना अर्पण करता हूँ। यह अग्नितत्व ही तो अधिपतये-इस पृथिवी का अधिपति है। शरीर का मुख्य रक्षक यह अग्नितत्व ही है।
२. अन्तरिक्षाय-मैं हृदयान्तरिक्ष के लिए स्वाहा-अपना अर्पण करता हूँ। इस हृदयान्तरिक्ष में मुख्यरूप से अपना कार्य करनेवाले प्राणाय-प्राण के लिए अपना अर्पण करता हूँ प्राणसाधना में प्रवृत्त होता हूँ। वयोभ्य:-इन प्राणों को पक्षी-तुल्य जानता हुआ इन पक्षियों के लिए अपना अर्पण करता हूँ। मैं यह भूलता नहीं कि 'पक्षियों की भाँति ये प्राण न जाने कब उड़ जाएँ'। इस हृदयान्तरिक्ष के वायवे अधिपतेय-अधिपति वायु के लिए मैं अपना अर्पण करता हूँ। जहाँ तक सम्भव होता है शुद्ध वायु मैं ही सञ्चार करता हूँ।
३. दिवे- द्युलोक के लिए स्वाहा-मैं अपना अर्पण करता हूँ। मस्तिष्क ही द्युलोक है। इसमस्तिष्करूप द्युलोक में चक्षु ही सूर्य है, उस चक्षुषे चक्षु के लिए मैं अपना अर्पण करता हूँ। चक्षु से देखकर ही मार्ग में चलता हूँ- 'दृष्टिपूतं न्यसेत्पादम् ।' नक्षत्रेभ्यः-नक्षत्रों के लिए मैं अपना अर्पण करता हूँ, सूर्याय अधिपतेय अधिपति सूर्य के लिए मैं अपना अर्पण करता हूँ। मैं अपने द्युलोकरूप मस्तिष्क में विज्ञान के नक्षत्रों व ज्ञान के सूर्य को उदित करने का प्रयत्न करता हूँ।
भावार्थ -
स्त्री में प्रजा-रक्षण की प्रबल भावना हो, वह पति के साथ अनुकूल बुद्धिवाली हो तथा प्रशस्त अन्नों का सेवन करती हो तो वह प्रायः नर - सन्तान को जन्म देती है।
विशेष -
अपने जीवन को उत्तम बनाता हुआ उत्तम सन्तान का निर्माता 'प्रजापति' अगले सूक्त का ऋषि है |