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अथर्ववेद - काण्ड 6/ सूक्त 105/ मन्त्र 2
यथा॒ बाणः॒ सुसं॑शितः परा॒पत॑त्याशु॒मत्। ए॒वा त्वं का॑से॒ प्र प॑त पृथि॒व्या अनु॑ सं॒वत॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठयथा॑ । बाण॑: । सुऽसं॑शित: । प॒रा॒ऽपत॑ति । आ॒शु॒ऽमत् । ए॒व । त्वम् । का॒से॒ । प्र । प॒त॒ । पृ॒थि॒व्या: । अनु॑ । स॒म्ऽवत॑म् ॥१०५.२॥
स्वर रहित मन्त्र
यथा बाणः सुसंशितः परापतत्याशुमत्। एवा त्वं कासे प्र पत पृथिव्या अनु संवतम् ॥
स्वर रहित पद पाठयथा । बाण: । सुऽसंशित: । पराऽपतति । आशुऽमत् । एव । त्वम् । कासे । प्र । पत । पृथिव्या: । अनु । सम्ऽवतम् ॥१०५.२॥
अथर्ववेद - काण्ड » 6; सूक्त » 105; मन्त्र » 2
विषय - यथा बाण:
पदार्थ -
१. (यथा) = जैसे (सुसंशित:) = सम्यक् तीक्ष्ण किया हुआ (बाण:) = बाण धनुष से विमुक्त हुआ हुआ (आशुमत् परापतति)-= शीघ्र दूर जाता है, (एव) = इसीप्रकार हे (कासे) = श्लेष्मरोग! (त्वम्) = तू (पृथिव्याः) = पृथिवी के (संवतम्) = निम्न प्रदेश को (अनु प्रपत) = लक्ष्य करके गतिवाला हो, बाण के वेग सेतु पाताल में जा।
भावार्थ -
जैसे धनुष् से छोड़ा बाण शीघ्रता से दूर जाता है, वैसे ही यह कासारोग हमसे दूर चला जाए।
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